भारत में साम्यवाद का इतिहास: लोकतांत्रिक मार्ग से नक्सली मार्ग तक

Written By Dr. Kaushik Chaudhary

Published on March 06, 2016/ ‘Projector’ column at Ravipurti in Gujarat Samachar Daily

"उस समय चारु मजूमदार और सान्याल को महात्मा गांधी की तरह महान नेता माना जाता था। लेकिन, बाद में उनकी हिंसक लड़त भटक गयी और निर्दोषो की भी हत्या होने लगी।"

रूसी क्रांति के बाद, 1925 में भारत में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई। लेकिन, असल में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना उसके पांच साल पहले ताशकंद, रूस में हुई थी। एम.एन. रॉय, अबानी मुखर्जी और उन दोनों की विदेशी पत्नियों सहित कई अन्य कम्युनिस्ट भारतीयों ने 1920 में अंतर्राष्ट्रीय साम्यवाद सभा के दौरान भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की थी, लेकिन उनमें से ज्यादातर लोग जब भारत आए तो ब्रिटिश सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया।

इस वज़ह से भारत में मुंबई, पंजाब, मद्रास, कलकत्ता जैसे शहरों में कुछ छोटे-मोटे कम्युनिस्ट संगठनों का गठन हुआ और इन सभी कम्युनिस्ट संगठनो ने 25 दिसम्बर 1925 को कानपुर में एक संयुक्त पार्टी में अपना विलीनीकरण कर कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया-सीपीआईकी स्थापना की। सीपीआई उस समय कांग्रेस की सत्याग्रह और लेनिन की हिंसक क्रांति की संयुक्त विचारधारा पर चल रही थी। इसलिए, तेलंगाना, त्रिपुरा और केरल में इसके सदस्यों ने सशस्त्र क्रांतियो की कोशिश की। लेकिन, अंग्रेजों ने उसे दबा दिया। उसके बाद पार्टी ने हिंसक तरीकों से स्वतंत्रता प्राप्त करने की नीति को रोक दिया। कम्युनिस्ट पार्टी भारत को पूर्णतः ब्रिटिश शासन से मुक्त करके साम्यवाद लाने का आह्वान करती थी। लेकिन, उसका दृष्टिकोण अखंड भारत का नहीं था। 1946 में, CPI ने एक घोषणापत्र जारी किया जिसमें कहा गया था कि भारत कोई एक देश नहीं है। यह तो कई छोटे देशों का समूह है। इसलिए भारत के तीन नहीं, बल्कि चौदह से पंद्रह टुकडे करने चाहिए। आजादी से पहले, अंग्रेजों ने कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों को ज्यादातर जेल में ही रखा और पार्टी को कभी सेटल नहीं होने दिया।

लेकिन, आजादी के बाद सीपीआई ने भारत के गरीबों, मजदूरों और किसानों में अच्छी खासी क्रांति जगाई। गुरु राधा किशन ने दिल्ली के टेक्षटाईल वर्करों के हितों की रक्षा के लिए चौबीस घंटे आमरण अनशन किया। इससे लोगों का कॉम्यूनिज़म के प्रति नज़रिया बदला। तब तक लोग उसे एक हिंसक क्रांतिकारियों की टोली मानते थे, लेकिन अब लोग इसे शोषितों और गरीबों के हितों की रक्षा करने वाली संस्था के रूप में देखने लगे। इसके परिणाम तुरंत ही दिखाई दिए। 1952 के पहले लोकसभा चुनाव में वह मुख्य विपक्षी दल के रूप में उभरा। सन 1957 में केरल में उसने देश की पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनाई। यह वह समय था जब भारत और रूस के बीच राजनीतिक सम्बंध काफ़ी अच्छे थे और रूस ने बार-बार भारत की कम्युनिस्ट पार्टी को नेहरू और कांग्रेस का समर्थन करने की अपील की थी। लेकिन, 1960 में रूस और चीन की कम्युनिस्ट पार्टियों के बीच मतभेद हुए। चीन के हिसाब से रूसी पार्टी मूल कम्युनिस्ट मार्ग से भटक रही थी। इस मतभेद से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर भी दो गुटों का निर्माण हुआ। फिर जब 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण किया, तब एक समूह था जिसने चीनी आक्रमण का विरोध किया और दूसरा समूह ऐसा था जो चीन के भारत पर आक्रमण को सही मानता था। इस दूसरे समूह ने कलकत्ता की सड़कों पर चीन और माओ झेडोंग जिंदाबादके नारे लगाए। इसलिए, उन लोगों को सरकार ने सलाखों के पीछे डाल दिया। यह दूसरा समूह अंतरराष्ट्रीय साम्यवाद के साथ जुड़े रहने के उद्देश्य से चीन का समर्थन कर रह था।

एस. ए. डांग नाम के एक सीपीआई अध्यक्ष ने दोनों समूहों को एकजुट करने की कोशिश की, लेकिन 1964 में दोनों पार्टियों की संयुक्त मीटिंग में, 32 सदस्यों ने वॉक-आउट किया, उनका कहना था कि डांग कांग्रेस और भारत का पक्ष लेकर कम्युनिस्ट एकता और साम्यवादी मूल्यों का विरोध कर रहे हैं। इस प्रकार, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में भी स्वदेश के पक्ष में एक राइट विंग और विदेशी साम्यवाद से जुड़े रहने की इच्छा रखने वाला लेफ्ट विंग अस्तित्व में आया। यह लेफ्ट विंग खुलेआम मजदूरों और गरीबों की तानाशाही लाने का आह्वान करने लगा और माओ झेडोंग जिंदाबादके नारे लगाने लगा। परिमल दास गुप्ता ने दोनों गुटों को एक कर एक कॉमन मिनिमम प्रोग्राम स्थापित करने की कोशिश की जिसे चारु मजूमदार की कुछ मांगों के साथ सिलीगुड़ी की बैठक में स्वीकारा गया। लेकिन, बंगाल कम्युनिस्ट पार्टी के अधिवेशन में कोमन मिनमम प्रोग्राम का वह प्रस्ताव अल्पमत में रहा। इस प्रकार, कुल साम्यवादीओ के 60 प्रतिशत साम्यवादी जो वैश्विक साम्यवाद के साथ क़दम मिलाने के लिए चीन के पक्ष में थे उन्होंने कलकत्ता में अपनी स्वतंत्र बैठक बुलाई और एक स्वतंत्र पार्टी के गठन की घोषणा की, जिसका नाम रखा गया कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया-मार्क्सवादी‘ (सीपीआई-एम या सीपीएम) और जो लोग भारत की एक व्यक्तिगत कम्युनिस्ट पार्टी चलाना चाहते थे, वे डांग के नेतृत्व में मुंबई में मिले और उन्होंने अपनी पार्टी का नाम सीपीआई के तौर पर जारी रखा। इस प्रकार, भारत में साम्यवादी दो गुटों में विभाजित हो गए।

सीपीआई-एम मजदूरों और गरीबों की पुरजोर वकालत करता था, इसलिए उसका प्रभाव बढ़ता गया। जबकी सीपीआई की सर्वसमावेशकता सीपीआई-एम की कट्टरता से हारती गयी। पश्चिम बंगाल में अब सीपीआई-एम की सीटें बढ़ रही थीं। लेकिन, इस दौरान सीपीआई-एम में भी कुछ लोग ऐसे थे जो लोकतांत्रिक तरीके से आगे बढ़ना चाहते थे, जबकि अन्य कुछ लोग माओ झेडोंग की तरह हिंसक क्रांति से भारत की सत्ता अपने हाथ में ले लेने के पक्ष में थे। इसी बीच 25 मई 1967 को सिलीगुड़ी के नक्सलबारी गाँव में कुछ किसान और खेत मज़दूर अपनी ज़मीन पाने के लिए सत्याग्रह कर रहे थे, तभी पुलिस ने उन पर फायरिंग कर दी और उसमे दो बच्चों समेत 11 लोगों की मौत हो गई। जवाब में गुस्साए लोगों ने तीर मारकर एक पुलिस अधिकारी की हत्या कर दी। इस घटना ने ज़ोर पकड़ा और जमींदारों और पुलिस के शोषण से त्रस्त मजदूरों ने पुलिस और जमींदारों को पीटना शुरू कर दिया और उनकी जमीनें छीन लीं। सीपीआई-एम के चारु मजूमदार, कनू सान्याल और जंगल संथाल जैसे नेताओं ने मजदूरों की इस हरकत को सही ठहराया।

चारु मजूमदार ने इस घटना को एक क्रांति बताते हुएऐतिहासिक आठ दस्तावेज़जारी किए। जिसने समाज में हड़कंप मचा दिया। मजूमदार और उनके सहयोगी 1969 में सीपीआई-एम से अलग हो गए और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया-मार्क्सवादी-लेनिनिस्ट‘ (सीपीआई-एलएम) की स्थापना की। उसमें शोषित गरीब, मजदूर, किसान शामिल होने लगे। नक्सलबारी गाँव के नाम पर उन्हें नक्सलवादी कहा गया। उस समय चारु मजूमदार और सान्याल को महात्मा गांधी की तरह महान नेता माना जाता था। लेकिन, बाद में उनकी हिंसक लड़त भटक गयी और निर्दोषो की भी हत्या होने लगी। इसलिए, 1970 में चारु मजूमदार और कनू सान्याल को गिरफ्तार किया गया, जहाँ 1972 में जेल में ही चारु मजूमदार की मृत्यु हो गई।

उनकी मृत्यु के बाद, सान्याल ने जेल से ही हिंसा छोड़ कर लोकतांत्रिक चुनाव प्रक्रिया के माध्यम से लड़ने का फ़ैसला किया। इस फ़ैसले से जेल के बहार सीपीआई-एलएम का भी विघटन हो गया और उसमे से कई नक्सली संगठन उभरे, जो हिंसक मार्ग को छोड़ना नहीं चाहते थे। आज उन्हें नक्सली या माओवादी कहा जाता है। दूसरी ओर सीपीआई-एम बंगाल में सत्ता में आई और उसके नेता ज्योति बसु 25 साल तक मुख्यमंत्री रहे। बसुने सान्याल को 1977 में जेल से रिहा कराया, लेकिन तब तक नक्सलवाद भारतीय पुलिस, सेना और सरकार के खिलाफ होकर चीन जैसे दुश्मन देशों का हथियार बनते हुए एक आतंकवाद का स्वरूप ले चुका था। सान्याल ने कई प्रयास किए लेकिन नक्सलियों को सही रास्ते पर न ला सके। आखिरकार 23 मार्च 2010 को उन्होंने सिलीगुड़ी स्थित अपने घर में आत्महत्या कर ली। ठीक उसी जगह से, जहाँ नक्सलवाद की उत्पत्ति हुई थी।

दूसरी ओर, सीपीआई-एम भी बंगाल में अपने 35 साल के शासन के बाद 2011 में बुरी तरह से तृणमूल कांग्रेस से हार चूका हैं। जब यह लिख रहा हूं (2016) तब केरल में भी कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता से हट चुकी है। इस प्रकार विकास के विरोध और गरीबों से ज़्यादा ग़रीबी की वकालत जैसे अव्यवहारिक सिद्धांतों के कारण साम्यवाद न केवल दुनिया में बल्कि भारत में भी हासिए पर जा रहा था, तभी जेएनयू में लगे राष्ट्रविरोधी नारों के माध्यम से उसके इस भूले-भटके इतिहास की पुनः चर्चा शुरू हो गई है। जेएनयू के कैंपस में भी लिबरल कम्युनिस्ट, मार्क्सवादी और माओवादी छात्र आपस में इस क़दर घुलेमिले हुए हैं कि उसमे से कौन भविष्य में देश के लिए बड़ा ख़तरा बनकर बहार आएगा ये कहना मुश्किल हैं।