भारत को आज़ादी गांधी नहीं बोस की वजह से मिली थी!

Written By Dr. Kaushik Chaudhary

Published on January 23, 2018/ ‘Projector’ column at Ravipurti in Gujarat Samachar Daily

'भारत की स्वतंत्रता बोस की आज़ादी और सार्वभौमत्व की रक्षा के लिए युद्ध करना ही धर्म है - उस आदर्श का परिणाम थी।'

नेताजी सुभाषचंद्र बोस के बारे में गुप्त रखी गयी फाइले खुलने की शुरुआत होने से और जनरल जी.डी. बख्शी की किताब बोस-द इंडियन समुराईमें हुए खुलासे के बाद एक बार फिर से यह दर्दनाक हकीकत सामने आ रही है कि कैसे चंद लोगों की सत्ता बनाए रखने के लिए हमारा असली इतिहास मिटा दिया गया है। लेकिन सच कभी हारता नहीं है। सत्तर साल से भारत की दो-दो पीढ़ियों को जो कुंठित इतिहास बताया गया हैं उसकी की नींव अब टूटने लगी है और नींव बनी इस बुनियादी सवाल से है कि भारत को आजादी किसने दीलायी? अहिंसा और शांतिप्रिय सत्याग्रह करनेवाले गांधीजी ने या फिर एक पूरी सेना खड़ी कर अंग्रेजों के साथ युद्ध करनेवाले नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने?

फरवरी 1955 में, बीबीसी के फ्रांसिस वोटसन को दिए एक इंटरव्यु में, बाबासाहेब अम्बेडकर ने कहा था, “मुझे नहीं पता कि प्रधानमंत्री एटली अचानक 1947 में भारत को स्वतंत्रता देने के लिए क्यों तैयार हो गए। यह एक रहस्य है जो मुझे विश्वास है कि एटली एक दिन जरूर प्रकट करेंगे। वह बोस और उनके द्वारा खड़ी की गयी आजाद हिंद फौज थी जिसने अंग्रेजों को भयभीत कर दिया था। अंग्रेज जानते थे कि गांधीजी का अहिंसावाला मार्ग ब्रिटिश सेना में रहे भारतीय सैनिकों को आजादी के लिए लड़ने के लिए जागृत नहीं कर पाएगा और सेना में रहे भारतीय सैनिको के अलावा ब्रिटिश सरकार को भारत से कोई नहीं उखाड़ सकता था। लेकिन बोस ने अंग्रेजों के इस भ्रम के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। बोस ने दिखा दिया कि भारतीय सैनिको को ब्रिटिश राज के खिलाफ देश की आजादी की लड़ाई के लिए तैयार किया जा सकता हैं। आजाद हिंद फौज के प्रति भारतीय सैनिकों में सहानुभूति और देशप्रेम का भाव पैदा हो गया था और भारत में रहे ब्रिटिश नौकरशाह इसका सामना करने के लिए तैयार नहीं थे। इसलिए, उन्होंने ही ब्रिटिश सरकार पर भारत छोड़ने के लिए दबाव बनाया।”

अंबेडकर के इस इन्टरव्यू के एक साल बाद 1956 में ही क्लेमेंट एटली, जिन्होंने 1947 में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के रूप में भारत को स्वतंत्र करने के निर्णय पर हस्ताक्षर किए थे उन्होंने अम्बेडकर की बात कबुली। 1956 में एटली भारत आए थे और उस समय के कलकत्ता के राज्यपाल जस्टिस पी.बी. चक्रवर्ती के अतिथि बने थे। पी. बी. चक्रवर्ती ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि उन्होंने एटली से सीधा सवाल पूछा की, ‘जब गांधीजी का भारत छोड़ो आंदोलन 1943 में ही निष्फल हो गया था, तो 1947 में अंग्रेजों को ऐसा क्या डर लगा कि उन्होंने भारत छोड़ना ज़रूरी समझा? एटली ने कहा कि मुख्य कारण एक ही था। नेताजी बोस ने भारतीय सैनिकों के बीच ब्रिटिश राज के प्रति वफादारी को नष्ट कर दिया था। मैंने अपनी बातचीत के अंत में उनसे पूछा की, भारत छोड़ने के ब्रिटेन के फैसले के पीछे आप गांधीजी का कितना प्रभाव मानते हैं? तो उन्होंने दबे होठों से एक मुस्कान दी और धीमी आवाज़ में कहा,’ मामुली‘ (minimal)

गांधीजी के विचारों से प्रभावित होकर कांग्रेस में आए नेताजी सुभाषचंद्र बोस 1930 के दशक के अंत तक गांधीजी के विचारों से अलग होने लगे थे। 1939 में, उन्होंने कहा कि अंग्रेजों को छह महीने के भीतर भारत छोड़ने का अल्टीमेटम दे देना चाहिए। लेकिन गांधीजी अंग्रेजों पर ऐसा दबाव करने को भी एक तरीके की हिंसा मानते थे। उसी वर्ष जब बोस गांधीजी द्वारा खड़े किये गए सीतारामय्या को हराकर कांग्रेस-अध्यक्ष बने तब गांधीजी ने अपनी नाराजगी स्पष्ट रूप से व्यक्त करते हुए कहा था कि, “सुभाष की जीत मेरी हार है।कांग्रेस के भीतर के इस वैचारिक टकराव से थककर, बोस ने कुछ ही समय में कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया। 1942 में गांधीजी ने जैसा बोस ने कहा था कुछ वैसे ही विचारो वालाहिन्द छोड़ोआंदोलन शुरू किया लेकिन वह एक साल के भीतर ही समाप्त हो गया। उसी वर्ष 1942 में, बोस ने अंग्रेजों के खिलाफ भारतीय सैनिकों को प्रेरित किया और सैनिकों, महिलाओं और युद्ध के कैदियों को इकठ्ठा करके 60,000 लड़वैयो की एक पूरी सेना बनाई। जिसमें महिलाओं की एक पूरी बटालियन थी। उन्होंने इस सेना का नाम आजाद हिंद फौजरखा और इसे चलाने वाली सरकार को आजाद हिंद सरकारनाम देकर मंत्रियों की नियुक्ति की। यह एक ललकार था कि भारत की स्वतंत्रता अब मांगी नहीं जाएगी, पर छीन ली जाएगी। आजाद हिंद फ़ौज ने जापान में सैन्य प्रशिक्षण और हथियार प्राप्त किए और जापान की मदद से भारत के उत्तरपूर्वी हिस्से पर हमला शुरू कर दिया। उन्होंने अंदमान और निकोबार जीत लिया और इम्फाल और कोहिमा पर चढ़ाई की। लेकिन 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध में जापान की हार के साथ ही आजाद हिन्द फ़ौज को मिलने वाली मदद बंद हो गई। अंतिम क्षण तक लड़ने के बाद रंगून में उन्हें हार का सामना करना पड़ा। इस युद्ध में आजाद हिंद सेना के 26000 सैनिक मारे गए और 23000 युद्धबंदी बने। सुभाषचंद्र बोस सेना के अन्य सैनिकों के साथ रंगून से निकल गए। बोस लड़ाई जारी रखने में मदद के लिए जापान के लिए रवाना हुए और रास्ते में ही एक विमान दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई, जो आज भी सवालों के घेरे में है।

बोस की मृत्यु के बाद, आजाद हिंद सेना के युद्धबंदियों पर राजद्रोह और हत्या की क़लम लगाकर कोर्ट-मार्शल करने के लिए लाल किले पर लाया गया और यही पूरे देश में आक्रोश भड़क उठा। भारत की प्रजा और ब्रिटिश राज के भारतीय सैनिकों ने इन युद्धबंदियों को स्वतंत्रता सेनानी माना और उनके खिलाफ लगे आरोपों को रद्द करने की देशव्यापी मांग शुरू कर दी। नेहरू और कांग्रेस ने भी उन्हें देशद्रोही न मानकर भटके हुए लोगकहकर इनकी सजा माफ़ करने की मांग की। नवंबर 1945 आते-आते कलकत्ता, लाहौर, कोहाट, इलाहाबाद, बामरोली, कानपुर जैसे कई शहरों में लाखों की संख्या में लोग जुटने लगे। हर एक सामाजिक वर्ग और हर एक सामाजिक एवं धार्मिक संगठनो ने इन सभाओ के लिए दान किया। दिल्ली में खुलेआम ऐसे पोस्टर चिपकाए गए कि अगर आजाद हिंद फ़ौज का एक जवान शहीद होता हैं तो उसके खिलाफ दस अंग्रेजों को अपनी जान गंवानी पड़ेगी। इस प्रकार, नेताजी और आजाद हिंद फ़ौज युद्ध हार के भी बाजी जीत गए।

लेकिन ब्रिटिश राज के पैरों तले से ज़मीन तो तब खिसकी, जब फरवरी 1946 में ब्रिटिश भारतीय नौसेना के 20,000 भारतीय सैनिकों ने 78 जहाजों में ब्रिटिश राज के खिलाफ विद्रोह कर दिया। उन्होंने जहाज़ पर ब्रिटिश अधिकारियों को क़ैद कर उनसे जय हिंदबुलवाया और जहाज़ से ब्रिटिश झंडा उतार कर तिरंगा फहरा दिया। वे इन जहाजों को लेकर मुंबई पहुंचे। इसके बाद के दिनों में वायु सेना के सैनिक और जबलपुर में भारतीय पैदल सेना के जवानों ने भी इसी तरह का विद्रोह किया। उस समय की ब्रिटिश सेना में ब्रिटिश सैनिकों की संख्या चालीस हज़ार थी, जबकि भारतीय सैनिकों की संख्या 25 लाख थी। ब्रिटिश सैनिक और नौकरशाह समझ गए कि वे एक जलती हुई भट्टी में जी रहे हैं। इसलिए, उन्होंने ब्रिटेन के सामने भारत छोड़ने का अपना इरादा घोषित कर दिया और उसी महीने ब्रिटन के एक सांसद ने प्रधान मंत्री एटली से मुलाकात की और कहा, “इस स्थिति में हमारे पास केवल दो विकल्प हैं। एक, भारत छोड़ने की तैयारी शुरू करे या दूसरा, इंतज़ार करे यह जानने का कि हमें कैसे निकाला जाता है।और फिर, भारतीय सैनिक ऐसी कोई हरकत न करे इस उद्देश्य से, 1947 की शुरुआत में ही एटली ने घोषणा की कि ब्रिटेन 1948 से पहले भारत छोड़ देगा।

इस प्रकार, भारत की स्वतंत्रता – बोस की आज़ादी और सार्वभौमत्व की रक्षा के लिए युद्ध करना ही धर्म है- उस आदर्श का परिणाम थी। लेकिन, इसे दबाने के लिए नेहरू ने आजादी के बाद एक घोषणापत्र जारी किया, जिसमें कहा गया कि भारत की आजादी गांधी के अहिंसावाले सॉफ्टरास्ते से ही हासिल हुई हैं। उसके बाद नेहरू के रेशमी इतिहासकारों ने भारत के स्वतंत्रता-संघर्ष के इतिहास से बोस का पत्ता काट दिया और गांधीजी को एकमात्र आदर्श स्थापित करके नेहरू को उनके प्रिय शिष्य के रूप में घोषित कर दिया। गांधीजी के आदर्श सामाजिक और आध्यात्मिक जीवन के लिए उत्तम थे। लेकिन स्वार्थ और सत्ता के लिए बेलगाम इस दुनिया में अस्तित्व बनाये रखने के राजनितिक उद्देश्य में उस महात्मा के विचार अव्यावहारिक साबित हुए। यदि बोस के योगदान को राजनीतिक ग्रहण न लगाया गया होता और आज़ाद भारत के लिए गांधी और बोस के श्रेष्ठ आदर्शों का उत्तम समन्वय किया गया होता, तो POK और सियाचिन आज हमारे पास होते।