तथाकथित हिंदूराष्ट्र बनने के बाद देश की क्या हालत होगी, इसका ट्रेलर शुरू हो चूका है

WrittenBy Dr. Kaushik Chaudhary

Published on October 17, 2015/ ‘Projector’ column at Ravipurti in Gujarat Samachar Daily

"जब तक हिन्दू होने का सही अर्थ जनमानस में स्थापित नहीं होता, तब तक हिन्दूराष्ट्र का विचार इस देश के भविष्य के लिए ख़तरनाक है।"

16 मई 2014 को सोलहवीं लोकसभा के नतीजे आए और एक स्पष्ट संदेश भारतीय राजनीति में गया। वह संदेश था कि मुसलमान कोई वोट बैंक नहीं हैं। वह भारतीय नागरिक है। लेकिन फिर भी अगर उन्हें वोट बैंक बन के एकसाथ ही वोट करना हैं, तो समझ ले की इस देश में 79 प्रतिशत हिंदू हैं और सरकार उनकी ही बनेगी। यह एक स्पष्ट संदेश था जिसे भारत की प्रत्येक राजनीतिक पार्टी को समझना पड़ा। ए.के. एन्टोनी ने कांग्रेस की हार के लिए जो कारण पेश किये उसमे एक मुख्य कारण मुस्लिम तुष्टिकरण था और इसीलिए मुस्लिम तुष्टीकरण को अपनी यूएसपी मानने वाली पार्टियों ने अपने हिंदू विरोधी रवैये को ख़त्म करने की कोशिश शुरू कर दी। हाल ही में घटे दादरी कांड में, एक मुस्लिम गौमांस खा रहा हैं एसी सिर्फ़ अफवाह के कारण एक धर्मजुनूनी भीड़ ने उसकी हत्या कर दी। मुलायम सिंह यादव ने जब इसकी रिपोर्ट केंद्र सरकार को भेजी तो उसमें गौमांस का मुद्दा ही गायब था। राहुल गांधी उस गाँव में गए और ट्विटर पर एक ही कमेंट किया कि वहाँ के लोग शांति बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध हैं। इस प्रकार, जो हिंदूराष्ट्र बनाने का सपना संघ ने देखा था, उसका एक ट्रेलर तो अब शुरू हो गया है, और इसीलिए इसका व्यापक विश्लेषण करना आवश्यक है कि यह ट्रेलर भारत और सनातन हिंदू धर्म के लिए वास्तव में कितना अच्छा है और कितना बुरा है।

इस राजनीतिक परिवर्तन के कारण एक ही वर्ष में न्यूटन के तीसरे नियम के अनुसार ओवैशी जैसे कट्टरपंथी मुस्लिम नेताओं और आतंकवादियों के हथियार बन चुके कश्मीरी मुसलमान पहले से ज्यादा उग्र बने और इस वजह से देश में धर्म का राजनीतिकरण और तेज़ हुआ। दूसरी ओर, गुजरात को फिर से राजनीति की लेबोरेटरी बनाया गया, लेकिन इस बार धर्म की बजाय जाति पृष्ठभूमि में थी। राज्य में ऐसी एक जाति ने आरक्षण के लिए आक्रमक मांग शुरू की, जो आर्थिक रूप से सबसे अधिक समृद्ध और शैक्षणिक रूप से सबसे अधिक जागरूक थी और राज्य में जिसके मुख्यमंत्री से लेके 8 मंत्री और 44 विधायक थे। जाति-आधारित आरक्षण को हटाने के लिए शुरू किए गए इस प्रयोग में राज्य की पिछड़ी जातियों का आरक्षण का लाभ लेने के आरोप में बार-बार अपमान किया गया। सरदार जैसे राष्ट्रीय लोक नायक को एक जाति की प्राइवेट प्रॉपर्टी बना दिया गया और उनके नाम का इस्तेमाल उन विचारों के लिए किया गया जिनसे सरदार खुद नफरत करते थे। करोड़ों की सरकारी संपत्ति को आग के हवाले कर दिया गया, कुछ मासूम युवकों ने अपनी जान गवाई और असामाजिक तत्वों को अपनी विकृति दिखाने का खुला मैदान मिल गया। सरकार ने तुरंत ही गैर-आरक्षित जातियों के गरीब और मध्यम वर्गीय परिवारों के लिए एक लाभदायी पैकेज की घोषणा की और कुछ प्रावधानों को हटा के न्याय किया। लेकिन आंदोलन अभी भी चल रहा है और आंदोलन के नाम पर दंगे करने वाले, लोगों के गुप्तांग काटने का और राज्य के पुलिस अधिकारियों की हत्या का आदेश देने वाले लोग खुल्लेआम घूम रहे हैं। और सरकार किसी कारण से चुप है और इसीलिए आगे क्या होगा यह एक रहस्य है।

जैसा हमेशा से हुआ है, गुजरात का प्रयोग देश में आगे बढ़ा और आरएसएस सुप्रीमो ने सामने आकर अपने सदियों पुराने आरक्षण विरोधी एजेंडे को सामने रखा और इतने में तो लालू और मायावती मैदान में आ गए। लालू नेकिसी के बाप में ताकत हो तो अनामत हटाकर दिखाएजैसे सरेआम जातिवादी निवेदन देकर पुरे बिहार इलेक्शन को सवर्ण जाति विरूद्ध पिछड़ी जातियों की लड़ाई में बदल दिया। मायावती ने भीमर जाऊंगी लेकिन आरक्षण नहीं हटने दूंगीजैसा डायलॉग बोलकर दलित समाज को टाइट किया। आज भी गुजरात में, अमेरिका की गलियों में, जुकरबर्ग के फेसबुक अकाउंट में और राजकोट वनडे मैच में अनामत मांगने के और बिहार में सवर्ण और पिछड़ी जातियों को लड़ाने के नए नए नुसखे रोज बाहर आ रहे हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में जिस मुस्लिम समुदाय के खिलाफ वोटिंग हुआ था, वह बिचारा तो चुपचाप अपने घर में बैठकर अपना काम-धंधा कर रहा है, जबकि यह पूरा नग्न नाच तो हमारे उसी तथाकथित हिंदू राष्ट्र का है जिसका हम आज तक इंतजार कर रहे थे।

मुस्लिम और ब्रिटिश संस्कृति इस देश में आई, उससे पहले भी इस देश में जातियों के बीच का यही नग्न नृत्य चल रहा था। 100 फीसदी हिंदुओं का देश आज अगर 79 फीसदी हिंदू हो गया है तो इसके पीछे यह स्वार्थी जातिवाद है। भारत के उन सत्रह करोड़ मुसलमानों और तीन करोड़ ईसाइयों को किसी विदेशी देश से आयात नहीं किया गया था। वे इसी देश के शोषितों में से थे जिन्हें उनके जन्म के कारण छुआ जाने योग्य नहीं माना जाता था। इसलिए इस धरती पर अपने जन्म के बाद कुछ सम्मानजनक जीवन जीने के लिए, उन्होंने विदेशी संस्कृति और विदेशी धर्म का सहारा लिया। लेकिन अगर हिंदुराष्ट्र की एक छोटी सी झलक भी ऐसी है, जहां तथाकथित ऊंची जातियां अपनी आर्थिक शक्ति और राजनीतिक गुटबाजी के हथियार से अपनी सामाजिक शक्ति को थोड़ा भी कम होने देने को तैयार नहीं हैं। यदि उत्पीड़ित वर्ग पर अत्याचार करके उन पर शासन करने की उनकी मानसिकता अभी भी वही है, तो इसका मतलब है कि सदियों बीतने के बाद भी और इतना कष्ट सहने के बाद भी हिंदू समाज में कुछ भी नहीं बदला है। हमने अपनी गलतियों से कुछ नहीं सीखा।

इसीलिए अगर हिंदुराष्ट्र बन भी जाता हैं तो जो लोग आज हिंदुओं और मुसलमानों को एक दूसरे से अलग करके शासन कर रहे हैं, वे फिर ब्राह्मणों को क्षत्रियों से और क्षत्रियों को वैश्यों और शूद्रों से अलग करके शासन करेंगे। जो लोग आज यह कहते हैं कि यह देश हिंदुओं का है, वे बाद में कहेंगे कि इस देश में ब्राह्मण सबसे ऊंचा है क्योंकि वह विष्णु के सिर से पैदा हुआ है और शूद्र तुच्छ है क्योंकि वह विष्णु के चरणों से पैदा हुआ है। गांधी और दीनदयाल उपाध्याय जैसे एक या दो विचारक पैदा होंगे लेकिन उनकी बातें सिर्फ़ ताली बजाने और स्कूली किताबों में पढ़ाने तक ही सिमित रहेगी। समाज वैसा ही रहेगा जैसा इतनी गुलामी सहने के १००० साल बाद भी हम देख रहे हैं। जाति को ही अपना समाज मान लेने वाले हम लोगों को, गंभीर आत्ममंथन की ज़रूरत है। एक बहोत बड़े वैचारिक मंथन की जो हमें जातिगत स्वार्थ की हदो से बहार ले जा सके और हमें एकदूसरे के लिए सोचने के लिए प्रेरित करे। क्योंकि जातिगत स्वार्थ की इस पराकाष्ठा में हममें से कोई भी निर्दोष नहीं है। जनरल केटेगरीवाला ख़ुद को ओबीसीवाले से, ओबीसीवाला ख़ुद को एस.सी. केटेगरी वाले से और एस.सी. वाला ख़ुद को एस.टी. केटेगरी वाले से ऊँचा कहता हैं। जनरल, ओबीसी और एससी केटेगरी की जातियाँ अंदरूनी तौर पर भी एक दूसरे से ऊँचे होने के दंभ के साथ जीती हैं। ऐसे दंभी और स्वार्थी हिन्दू समाज से हम कैसे एक राष्ट्र का निर्माण कर पाएंगे?

हमसे दूर जा चुके सत्रह करोड़ मुसलमान और तीन करोड़ ईसाई हमारी सबसे बड़ी हार हैं। जब तक हम उन्हें अपना नहीं बना पाते, जब तक हम उन्हे वापस अपने में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होते, तब तक हम सच्चे हिंदू कहलाने के लायक नहीं हैं। हिंदू तो वे लोग थे जो सिंधु नदी के किनारे सनातन विचारधारा के साथ जीवन जीते थे। जिनके विचारों में हर उपासना पद्धति और हर तत्वज्ञान को समेटने की शक्ति थी। हिंदू सभ्यता वह थी जिसकी शरण में जो भी जाता वह अपनी उपासना पद्धति और मान्यताओं का आधार उपनिषदों के उस अथाग ज्ञानसागर में प्राप्त कर लेता और उसी हिन्दू संस्कृति में ख़ुद को विसर्जित करके उसका एक हिस्सा बन जाता। लेकिन अगर लोग बाद में ऐसा नहीं कर पाए, तो इसका मतलब यही है कि हमने अपनी विस्तृतता और महानता खो दी। हम संकुचित और स्वार्थी बन गए और जब तक हमारे ही लोगों से ख़ुद को ऊँचा बताकर सत्ता भोगने की यह विकृति हममे हैं, हिंदू समाज का पुनः उत्थान नहीं हो सकता हैं। तो चलिए हम सच्ची हिंदू विचारधारा के लिए आत्ममंथन करें। उतिष्ठ भारत…