WrittenBy Dr. Kaushik Chaudhary
Published on August 12, 2018/ On Facebook
‘यही एकमात्र देश है जहाँ आदिवासियों द्वारा लिखे गए ग्रंथों को मैदानी सभ्यता के लोग अपने धर्मग्रन्थ मान के पूजते हैं और उसका आचरण करते हैं। यह आदिवासियों को आत्मज्ञानी ऋषि बनाने वाला देश हैं। सच्ची तस्वीर ये है।’
लेखक हरिभाई देसाई का 9 अगस्त का विश्व आदिवासी दिन पर का लेख पसंद आया। उसमे बहुत अच्छी जानकारी हैं, लेकिन कुछ मुद्दों पर मेरा विरोध हैं जिन्हें में यहाँ बता रहा हूं।
पहले तो लेखक और उन्होंने जिस संशोधनकर्ता का नाम दिया हैं उन्हें ‘आदिवासी’ शब्द को परिभाषित करना चाहिए। यदि यह निष्कर्ष ‘जो जंगल में रहते हैं वह आदिवासी’ ऐसी परिभाषा पर आधारित है, तो जस्टिस काटजू का यह कथन कि ‘भारत 92 प्रतिशत आदिवासियों का देश था और फिर समय-समय पर बाहरी लोगों ने आकर देश पर कबजा कर लिया’ – यह अपनी ही जड़ों को काटने की तथाकथित लिबरल और मार्कसिस्ट सोच का प्रतिबिंब हैं। सच यह है कि पूरी मानवजाति अफ्रीका के जंगलो से ही आयी हैं और जंगलो से स्थानान्तर करके ही होमो सेपियन्स मैदानी प्रदेश में आये थे। मतलब जिन्होंने मैदानी सभ्यता शुरू की वह मनुष्य भी कभी आदिवासी थे। सिर्फ़ भारत नहीं, पूरी पृथ्वी आदिवासियों की ही थी। मैदानी सभ्यता स्थापित करने वाले आदिवासी जब जंगल में रहने वाले आदिवासियों के संपर्क में आये तब हमेशा की तरह दो समान्तर प्रक्रिया शुरू हुई। एक, जंगल के आदिवासी लोग मैदानी सभ्यता की आधुनिकता, आकर्षण और समृद्धि से सम्मोहित हुए, और दूसरी, मैदानी लोगों की लालची दृष्टि आदिवासियों की ज़मीन और विभिन्न औद्योगिक कच्चे माल उपलब्ध कराने वाले जंगलों पर पड़ी।
आदिवासियों की मैदानी इलाकों की समृद्धि पाने की इच्छा को जानकर मैदानी इलाकों के लोग अपना काम आदिवासियों को सौंप कर उन्हें अपनी सभ्यता का हिस्सा बनाने लगे। इस प्रकार से ये दोनों सभ्यताएँ संपर्क में भी आईं और आगे चलकर एक-दूसरे के संसाधनों पर वर्चस्व स्थापित करने के संघर्ष में भी। यदि आदिवासियों में मैदानी इलाकों की समृद्धि पाने की इच्छा और लालच न जगा होता, तो कोई भी उनका का कुछ भी न बिगाड़ पाता। लेकिन उनके उस लालच ने उन्हें मैदानी सभ्यता का गुलाम बनने के लिए धकेला और फिर उस सभ्यता का एक बड़ा हिस्सा बनने के संघर्ष की तरफ़। यह लगभग पृथ्वी के हर हिस्से में हुआ। बस भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जहाँ अमेरिका और यूरोप की तरह आदिवासी सभ्यता को मारकर पूर्णत: लुप्त नहीं किया गया। भारत में अनादि काल से हमेशा परस्पर के संघर्षो को मिटा कर उन्हें मैदानी इलाको का एक ख़ास हिस्सा बनाने की कोशिश हुई हैं। वाल्मीकि, वेद व्यास और भृगु जैसे कई ऋषिमुनि उन आदिवासीयो में से आये और उनके द्वारा लिखित ग्रन्थ आज भी हिन्दू सभ्यता की नींव हैं।
यही एकमात्र देश है जहाँ आदिवासियों द्वारा लिखे गए ग्रंथों को मैदानी सभ्यता के लोग अपने धर्मग्रन्थ मान के पूजते हैं और उसका आचरण करते हैं। यह आदिवासियों को आत्मज्ञानी ऋषि बनाने वाला देश हैं। सच्ची तस्वीर ये है। इसका मतलब यह नहीं हैं आज अगर आदिवासियों के साथ कोई अन्याय हो रहा हो तो प्राचीन भारत की महानता को आगे रख कर उसको नजरअंदाज किया जाये, पर इसका मतलब यह भी नहीं हैं कि- ‘भारत आदिवासियों का देश था और फिर बाहर से आए लोगों ने उनसे सब कुछ छीन लिया’ – ऐसे बयानो को प्रोत्साहन दिया जाये, जो वास्तव में मार्क्सवाद का समर्थन और नक्सलवाद को बल देने का काम करते हैं। यह असल में पूरी दुनिया में अपना समर्थन खो चुकी आर्यों के बाहर से भारत में आने की बात करती बीसवीं सदी की उस विकृत थियरी को शक्ति देने का मूर्खतापूर्ण प्रयास है। बुद्धिजीवी बनने की होड़ में इन झूठी मान्यताओं को समर्थन देने की बजाय स्वतंत्र होकर अपना स्वतंत्र चिंतन करना चाहिए, जो एक सम्पूर्ण और सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करे। लेखकश्री और उन्होंने जिस संशोधनकर्ता का उल्लेख किया हैं उन दोनों को मेरी यह सलाह और विनती हैं।
जहाँ तक मेरी निजी राय का सवाल है, मुझे आदिवासियों की कोई चिंता नहीं है। मुझे जंगलों और प्रकृति की चिंता है। आदिवासी भी इंसान ही हैं और जैसा कि मैंने कहा सभी इंसान कभी न कभी आदिवासी ही थे। मैदानी सभ्यता की आधुनिकता से आकर्षित होकर समृद्धि की चाह में जो आदिवासी शहरों में आए या जिनके जंगलों को उद्योगों के लिए नष्ट कर दिया गया वे सभी आदिवासी शहरों में मज़दूरी और गुलामी के चक्रव्यूह में फंसे थे। अमेरिका ने वहां के रेड इंडियन आदिवासियों के सामने हिंसक संघर्ष करके उन्हें लुप्त कर दिया, तो यूरोपियनों ने भारत और अफ्रीका जैसे देशों में जहां उनका राज था, वहां आदिवासीयों की जमीन हथिया कर उन्हें कृषि मजदूर बना दिया। लेकिन स्वतंत्र भारत में उन्हें आरक्षण देकर उन्हें मुख्यधारा में लाने का प्रयास किया गया और इसके सुन्दर परिणाम भी मिले हैं। इसीलिए डॉक्टर, इंजीनियर और सरकारी बाबु बन चुके आदिवासी अब आदिवासी नहीं रहने वाले| उनके बारे में चिंता करने का कोई मतलब नहीं है। उन्हें अब आदिवासियों के रूप में नहीं पर एक इंसान के रूप में या भारतीय के रूप में देखना है। लेकिन जो जंगल वे छोड़ के आये हैं, उन जंगलो को तो आदिवासियों के मैदानी बाबू बनने से नुकसान ही होना हैं |
वे लोग अब जंगलों का वैसा संवर्धन नहीं करेंगे जैसा पहले करते थे | मैदानी प्रदेशो की भौतिक भागदौड़ में प्रवेश करते हुए वे उन जंगलो को काट के आधुनिक व्यवसाय भी स्थापित कर सकते हैं | तो असली चिंता आदिवासियों की नहीं, उनके निवासस्थान वैसे उन जंगलो और जमीनों की करनी हैं। आदिवासी के तौर पर भी वे सुखी हैं और जंगलो और प्रकृति की रक्षा कर रहे हैं। लेकिन उनके वोट पाने के लिए या धर्मांतरण के लिए उन्हें भौतिकवादी बनाने की यह जो रेस चल रही हैं, उसमे नुकशान अंततः जंगलो और प्रकृति का ही हैं। ईसाई मिशनरियों और उनसे संलग्न संस्थाए आदिवासियों के उद्धार के नाम पर आदिवासियों की कई जमीनों पर कब्जा कर चुकी हैं, जिसमे कुछ नेताओ का भी हिस्सा होता हैं। इसलिए आदिवासी बनाम शहरी का संघर्ष पूरी तरह से एक राजनीतिक उत्पाद है। वास्तविक संघर्ष मनुष्य और प्रकृति के बीच है।