Written By Dr. Kaushik Chaudhary
Published on October 15, 2015/ ‘Projector’ column at Ravipurti in Gujarat Samachar Daily
"जहाँ राम जैसे ईश्वर की कक्षा के लोगो ने जन्म लिया था, वह आर्यव्रत भरत जैसे एक राजा के नाम पर 'भारत' क्यों कहलाया? क्या हैं भारतीय होने का मतलब?”
दसवीं क्लास में एक बार एक इंस्पेक्शन ऑफिसर आये। उन्होंने छात्रों से एक सवाल किया। सवाल यह था कि भारत देश का नाम राजा भरत के नाम पर ही क्यों रखा गया? छात्र एक पल के लिए शांत हो गए। सभी जानते थे कि भारत का नाम राजा भरत के नाम पर रखा गया है। लेकिन राजा भरत के नाम पर ही क्यों रखा गया है, यह सवाल उन्होंने पहली बार सुना था। एक छात्र जिसकी माँ हाईस्कूल की शिक्षिका थी, उसने उत्तर दिया, “क्योंकि वह बहुत पराक्रमी थे। जब वे छोटे थे तो शेर के मुंह से दांत गिनते थे।” ऑफिसर हंसे और बोले, “सिर्फ इसलिए पूरे देश का नाम उन के नाम पर रख दिया गया?” उन्होंने सही जवाब देने के लिए अपनी बात शुरू की।
राजा भरत-जो ययाति के पांच पुत्रों में से एक, राजा कुरु के वंशज दुष्यंत के पुत्र थे-एक महान सम्राट थे। जब भरत वृद्ध हो गए, तो उन्होंने हस्तिनापुर के सिंहासन के लिए एक उपयुक्त उत्तराधिकारी की तलाश शुरू कर दी। उनके कुल नौ पुत्र थे। उन्होंने इन सभी पुत्रों के लिए विभिन्न प्रतियोगिताएँ आयोजित कीं और उनमें से सर्वश्रेष्ठ को राजा बनाने का निर्णय लिया। उनमे से एक भी प्रतियोगिता उनके कोई भी पुत्र पास नहीं कर सके। लेकिन उनके एक अंगरक्षक भुमायु ने ये सारी परीक्षाएँ पास कर लीं। इससे पहले भी एक बार एक युद्ध में राजा भरत के घायल होने से उनकी सेना में भगदड़ मच गयी थी और सेनापति तक राजा को छोड़ के भाग ने लगे थे, उस समय सेना में एक सामान्य सैनिक के तौर पर शामिल भुमायु ने पूरी सेना को भागने से रोककर उन्हें फिर से युद्ध में जोड़ा था और युद्ध जीता था। भरत ने देखा की राजा बनने के कोई गुण उनके नौ पुत्रो में नहीं हैं, लेकिन वे सभी श्रेष्ठ गुण भुमायु में हैं। अंत में, भरत ने अपने नौ पुत्रों की उपेक्षा करके भुमायु को नया सम्राट और अपना उत्तराधिकारी घोषित किया।
भरत के इस निर्णय से उनके पुत्रों, तीन पत्नियां और उनकी माता शकुंतला नाराज हुए। जब शकुंतला ने इसका विरोध किया, तब भरत ने कहा, “माता, आप एक माँ हैं। आपको ममता ने बाँध रखा हैं। में एक राजा हूँ। मुझे राजधर्म ने बाँध रखा हैं। आपको अपने पुत्रों की चिंता है। मुझे मेरी प्रजा की। मनुष्य की पहचान उसके कर्मों से होती है। जन्म से नहीं। जो योग्य है वही राजा बनेगा।” भरत का यह निर्णय संपूर्ण आर्यव्रत के लिए एक क्रांतिकारी विचार था। असल में उस समय की जाति व्यवस्था भी कर्म पर आधारित थी। जो अध्यापन कार्य करते थे वह ब्राह्मण थे। योद्धाओं और राज्य धर्म के वाहकों को क्षत्रिय, व्यापारी को वैश्य और मज़दूर वर्ग को शूद्र कहा जाता था। लेकिन इस कर्म आधारित जाति व्यवस्था का पालन करते हुए कोई राजा अपने ही वंश की उपेक्षा करके एक आम आदमी को राजा बना दे, ऐसा आर्यव्रत की धरती पर पहली बार हुआ था। इसलिए, भरत के नाम द्वारा कर्म से ही मनुष्य की पहचान करने के भारतीय जाति व्यवस्था के महान सिद्धांत को युगों तक बल मिलता रहे और यह महान सिद्धांत कभी लुप्त न हो इस उद्देश्य से उस समय के ब्राह्मण और बुद्धिजीवियों ने पूरे आर्यव्रत को ‘भारतवर्ष‘ नाम देने का फ़ैसला किया। भरत के विचारों को वहन करता देश और यही एक भारतीय होने का सही अर्थ है। ‘भारतीय’ यानी एक इंसान जो हर इंसान को उसके कर्म के आधार पर महत्त्व देता हैं।
लेकिन, भरत का अपना ही वंश शांतनु के समय तक आते आते इस सिद्धांत से भटक गया। शांतनु एक सुंदरी सत्यवती के प्रेम में पड जाता हैं और वह सत्यवती के पिता के समक्ष शादी का प्रस्ताव रखता है। सत्यवती के पिता ने एक शर्त रखी कि शांतनु सत्यवती से तभी विवाह कर सकता है, जब वह अपने पुत्र देवव्रत के स्थान पर सत्यवती के भावी पुत्र को राजा बनाए। जब देवव्रत ने इस स्थिति के कारण दुखी पिता को देखा, तो सत्यवती के पुत्र को राजा बनाने की गारंटी के रूप में, कभी भी राजा न बनने और आजीवन ब्रह्मचारी रहने की एक भीषण प्रतिज्ञा ले ली। इसी वजह से उन्हें महान ‘भीष्म’ कहा गया। इस प्रकार, एक महान और शक्तिशाली सम्राट बनने की क्षमता रखने वाले भीष्म के खिलाफ सत्यवती के अजन्मे बच्चे को राजा बनाने का निर्णय लिया गया। जन्म के नाम पर राजा बनने की यह भ्रष्टता धृतराष्ट्र के समय में अपनी पराकाष्ठा पर पहुँची, और उसने जीवनभर धर्मराज कहे जाने वाले युधिष्ठिर के सामने अपने दुष्ट और मूर्ख पुत्र दुर्योधन को राजा बनाने के अपने प्रयासों में महाभारत के भीषण युद्ध को आमंत्रित किया। शांतनु और धृतराष्ट्र के समय की यह भ्रष्टता राज परिवार से सामान्य समाज में भी पहुँची और जाति व्यवस्था के उच्च सिद्धांत कुंठित हो गए। लोग अपने व्यवसाय अपने बच्चों को विरासत में सौंपने की कोशिश करने लगे। इससे सबसे अधिक लाभ उच्च माने जाते ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्गों को था और क्योंकि दोनों वर्ग शक्तिशाली थे, शेष वर्ग के लिए उनका विरोध करना मुश्किल हो गया। लोग अपने संतानो को उनके जन्म के साथ ही ऊँचा कहलाये जाने का सर्टिफिकेट देने लगे। इस सारी भ्रष्टता में सबसे ज़्यादा अन्याय और शोषण शूद्रों का हुआ। यहाँ तक कि शूद्रों के घर में पैदा हुए कुछ महाज्ञानी और गुणवान लोगों को भी को शूद्र मान के तिरस्कृत किया गया और यहीं से भारत का क्रमिक पतन शुरू हुआ। क्योंकि भारतवर्ष से ‘भारतीय‘ शब्द का अर्थ ही ख़तम हो गया था।
ब्राह्मणो ने अपनी सत्ता को निरंकुश बनाने के लिए शूद्रों के दमन के नए-नए नियम बनाए जैसे कि उन्हें वेद और गीता सुनने से मना कर दिया गया। यहाँ तक कि उनका स्पर्श भी वर्जित माना गया। उनके लिए मंदिरों के दरवाजे बंद कर दिए गए। अरे, उन्हें थूकने के लिए भी एक मटकी गले में रखनी पड़ती थी। इस प्रकार, जिस महान भरत ने कर्म के आधार पर एक आम आदमी को राजा बना दिया था, उसके अपने ही वंशजों ने निरंकुश धार्मिक और सामाजिक सत्ता के लिए उन्हीं आम लोगों को जानवरों से भी बदतर जीवन जीने पर मजबूर कर दिया और यह दमन आज भी किसी न किसी रूप में जारी है। जब तक इस देश में एक भी अछूत है, तब तक पूरा देश अछूत है। यह पूरी मानवजाति अछूत है। जो समाज किसी जीवित मनुष्य को सिर्फ़ उसके जन्म के कारण नीच मानता हैं वह पूरा समाज ही नीच है। हम सब नीच हैं। जब तक हम में से एक भी मनुष्य उसके जन्म के कारण अपमान और घृणा पाता हैं, तब तक हम सभ्य नहीं बने हैं। सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक सत्ता के लालच में हम उन जानवरों से भी बदतर हो गए हैं जिनसे हम विकसित हुए थे। अगर कोई ख़ुद को सही मायने में भारतीय मानता है, अगर कोई वास्तव में ख़ुद को एक इंसान मानता है, तो वह पहले इस धरती पर तिरस्कृत और शोषित उन मनुष्यों के पास जाए, उनकी पीड़ा सुने और उनको एक इंसान के रूप में अपनी गरिमा वापिस दिलाने के लिए जानवरों से भरे इस भ्रष्ट समाज के खिलाफ संघर्ष करे।
यह सुनकर जब दसवीं कक्षा का वह छात्र घर आया तो उसने अपनी दो साल बाद सेवानिवृत्त होने वाली हाईस्कूल टीचर माँ से यही सवाल पूछा, “माँ, हमारे देश का नाम भरत के नाम पर से ही क्यों रखा गया?” माँ ने कहा, “अरे! वह बड़े साहसी थे। शेर के मुँह से दाँत गिन लेते थे, इसलिए?” (यह हैं हमारी शिक्षा!)