पानीपत का ऐतिहासिक युद्ध और आधुनिक भारत का भाग्य

Written By Dr. Kaushik Chaudhary

Published on November 05, 2019/ On Facebook

'अगर पानीपत में मराठा जीते होते, तो लोकतंत्र भारत में आ पाता या नहीं? आता तो कैसे आता? ऐसे अनेक सवाल हैं, लेकिन एक बात तय है कि अगर वह जीत गए होते तो आज पाकिस्तान और बांग्लादेश का अस्तित्व न होता। आज भी एक अखंड हिंदू बहुल भारत में हम जी रहे होते।'

आज आशुतोष गोवारिकर की आने वाली फ़िल्म पानीपतका ट्रेलर देखा और महीनों पहले एक इतिहासकार द्वारा पूछा गया एक सवाल याद आ गया। आपने बाजीराव पेशवा के साथ अपने जुड़ाव का ज़िक्र किया है। बाजीराव ने एक छोटे से राज्य को विशाल मराठा साम्राज्य में बदलकर एक नये इतिहास को जन्म दिया था। लेकिन बाजीराव की मृत्यु के 21 साल बाद पानीपत की लड़ाई में जो हुआ उसने उस साम्राज्य को ख़त्म कर दिया। आज अगर बाजीराव उस समय को याद करे तो अपने जाने के बाद हुए पानीपत के युद्ध को कैसे याद करेंगे?’

उत्तर: एक बहुत बड़े घांव के रूप में। मैंने पहले भी कहा है कि मेरी यात्रा मेरे दो प्रेम की यात्रा है। एक है किसी व्यक्ति के प्रति प्रेम और दूसरा है भारत भूमि से प्रेम। पानीपत में जो हुआ वह एक महान सपने का उस वक़्त अंत था जब वह अपने साकार होने के सबसे करीब था और इसलिए वहाँ जो गलतियाँ हुई वह बहुत कुछ सिखा जाती हैं। बाजीराव ने जब मराठा साम्राज्य की स्थापना की थी, तब उन्होंने कुछ बुनियादी बातें कही थीं, जिन्हें वहाँ भुला दिया गया था। जैसे की, दिल्ली के बादशाह के आस-पास के क्षेत्र और नवाबो को पराजित करते जाना, लेकिन सम्राट को तब तक हाथ नहीं लगाना जब तक कि पूरे उत्तर भारत की सत्ता मराठाओ के हाथों में संतुलित न हो। दूसरा, बाजीराव के समय में वह ख़ुद ही लड़ाई लड़ते थे और ख़ुद ही संधियों के निर्णय लेते थे, लेकिन बाजीराव के बेटे बालाजी बाजीराव (फिल्म में मोहनीश बहल द्वारा अभिनीत) जिसे नानासाहेब भी कहा जाता था, वह योद्धा नहीं थे। (यह वह नानासाहेब नहीं हैं जिन्होंने रानी लक्ष्मीबाई या मणिकर्णिका का पालन-पोषण किया था। वे इनके सौ साल बाद आने वाले आखिरी पेशवा थे। यह बात 1740-61 के बीच की हैं।) 

बालाजी बाजीराव ने ख़ुद कोई युद्ध नहीं लड़ा। वह पेशवा की उपाधि धारण करके पुणे में बैठे रहे और केवल राजनीतिक और सामाजिक संधियाँ करते रहे। जबकि उनकी तरफ़ से बाकि बचे भारत में मराठा साम्राज्य का विस्तार करने के लिए युद्ध लड़ने का काम बाजीराव के भाई चिमाजी अप्पा के बेटे सदाशिवराव भाऊ करते थे। बाजीराव की शक्तियों के सच्चे उत्तराधिकारी सदाशिवराव थे। इस प्रकार, एक सच्चा योद्धा युद्ध करता रहा और नानासाहेब राजा की तरह महल में बैठे-बैठे उसका श्रेय लेते रहे। उपर से मराठा सरदार जो सम्पति जीत कर लाते थे उसे वह एक राजा की तरह अपने शहर पुणे में विभिन्न भवनों, मंदिरों और उद्यानों के निर्माण में ख़र्च करते। आज भी पुणे की कई पुरानी इमारतें नानासाहेब की बनवाइ हुई हैं। नानासाहेब की यह नीति वैसी ही थी जैसी आज के पाकिस्तान में दिखती है। पाकिस्तान के बलूचिस्तान, सिंध क्षेत्र, पश्तून क्षेत्र और गिलगित बलिस्तान में पाकिस्तान से अलग होने की मानसिकता है।

इसी वज़ह से सालो से पाकिस्तानी सरकार और सेना इन क्षेत्रों से संसाधन लूट-लूटकर पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में डाल रही है। सारा विकास इस्लामाबाद और लाहौर की तरफ़ ही है, बाक़ी के पाकिस्तान का बस इस्तेमाल किया जाता है। नानासाहेब ने यही गलती ढाई सौ साल पहले की। मराठाओ ने जब लगभग पूरे भारत पर कब्जा कर लिया था, तब नानासाहेब ने बाक़ी के प्रांतों से मिलती चौथ और लूंट के सामान से अपने नगर पुणे को सजाना शुरू कर दिया। जबकि असल में ज़रूरत थी उस पैसे का उपयोग बाकि के भारत में एक स्थायी व्यवस्था स्थापित करके मराठा साम्राज्य को संतुलित करने की और वहाँ के लोगों का विश्वास जीतने की।

नानासाहेब की इन सभी नीतियों की वज़ह से, युद्ध लड़कर साम्राज्य का विस्तार कर रहे मराठा सरदार भी विद्रोही होने लगे और जिसने जो क्षेत्र जीता वह वही का राजा बन बैठा। इस प्रकार, भारत का मराठा साम्राज्य जो पश्चिम में आज के पाकिस्तान से पूर्व में बंगाल और दक्षिण में मैसूर तक फैला हुआ था, वह एक न रहते होलकर, सिंधिया, गायकवाड़, भोंसले, जैसे सरदारों के सूबे में बदल गया। कभी-कभी पेशवा और इन सूबों के बीच भी लड़ाईया हुई और उसमें भी नानासाहेब को विभिन्न संधियाँ करनी पडी। उत्तर में सिख और पंजाब राज्य के हिंदू शासकों के साथ मराठाओ ने युद्ध जीते और उन्हें लूट के अत्याचार किए और अंत में, इन सभी गलतियों के ऊपर, नानासाहेब ने एक सबसे बड़ी गलती की। वही जो बाजीराव ने मराठाओ को करने से मना किया था। अंदर से बिखरे हुए, सीमा पर रहे हिन्दू राज्यों के शोषणकर्ता दिख चुके और अभी भी उत्तर में जिनके कुछ दुश्मन मौजूद थे ऐसे मराठा साम्राज्य को नानासाहेब ने भारत का मालिक समज लेने में जल्दबाज़ी कर दी। उन्होंने अपनी कठपुतली की तरह दिल्ली में राज चला रहे मुगल बादशाह को उठाकर अपने बेटे को दिल्ली की गद्दी पर बिठाने की गुप्त तैयारी शुरू कर दी। ग्राउण्ड पर युद्ध लड़ने वाले मराठा सरदारों की सलाह के खिलाफ जा के नानासाहेब यह प्रयास कर रहे थे। जब दिल्ली के बादशाह को इस बात की भनक लगी, तो उसने अफगानिस्तान में अपने ही दुश्मन अहमद शाह अब्दाली को संदेश भेजा की वह भारत पर चढ़ाई करे और दिल्ली की सत्ता अपने हाथों में ले ले। दिल्ली के बादशाह को पता था कि दिल्ली पर चढ़ाई करने के लिए आते अब्दाली को वर्तमान पाकिस्तान और पंजाब प्रांत में शासन करने वाले मराठाओ से लड़ना होगा।

इस प्रकार, दिल्ली के सम्राट ने ख़ुद को बचाने के लिए मराठाओ और अहमद शाह अब्दाली को लडाने का अंतिम विकल्प चुना और वह काम कर गया। अब्दाली एक लाख की सेना के साथ तलवार और बंदूके ले के भारत पर चढ़ाई करने आ गया, जहाँ पानीपत में मराठा ४० हजार सैनिकों के साथ उसे रोकने के लिए तैयार थे। इस प्रकार पानीपत की तीसरी लड़ाई हुई और भारत की सीमाओं पर रहे राजाओं ने अपने शोषणकर्ता मराठाओ को हराने में अब्दाली की मदद की। 1720 में बाजीराव के पेशवा बनने के बाद से लगतार चालीस सालो से जीत रहे मराठा इस युद्ध में पहली बार हारे। 27000 मराठा सैनिक मारे गए जिसमे सदाशिवराव, नानासाहेब का पुत्र और बाजीराव-मस्तानी का पुत्र शमशेर बहादुर भी शामिल थे। मराठा साम्राज्य एक ही युद्ध से ढह गया। महल में बैठे हुए नानासाहेब सदमे के कारण वही मर गए।

पानीपत में मराठाओं की हार हुई, लेकिन अब्दाली को भी भारी नुक़सान हुआ। वह वहाँ से आगे नहीं बढ़ पाया, और अफगानिस्तान लौट गया। दिल्ली के बादशाह का तख़्त बच गया लेकिन वह बिना शक्ति की सत्ता थी। इस प्रकार, अचानक से भारत में किसी भी शक्तिशाली साम्राज्य की उपस्थिति नहीं बची थी। सब टूट चुके थे और इसका फायदा उठाया चार साल पहले 1757 में प्लासी की लड़ाई जीतकर अपने शासन की नींव डाल चुके अंग्रेजों ने। अंग्रेजों ने सत्ताहीन भारत पर एक के बाद एक युद्ध और योजनाओ से कब्जा कर लिया। इस प्रकार, पानीपत की लड़ाई ने असल में अंग्रेजों को भारत का शासक बनाया। दिल्ली पर सत्ता के लिए लड़ रहे मराठा और मुगल दोनों ही अंग्रेजों के गुलाम बने और उसके बाद ब्रिटिश राज का भारत के आर्थिक शोषण का वह दौर शुरू हुआ जिसने आधुनिक भारत की कमर तोड़ दी। उस पूरे शोषण और मानसिक गुलामी से भारतीय मानस को आध्यात्मिक रूप से जगाने का सबसे पेहला काम स्वामी विवेकानंद ने किया और विवेकानंद के उस आध्यात्मिक आंदोलन ने रवींद्रनाथ टैगोर, महर्षि अरबिंदो, महात्मा गांधी और सुभाष चंद्र बोस जैसे नेताओं में भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए लड़ने के लिए प्राण फूंके।

आज मैं देख सकता हूँ कि अगर पानीपत की लड़ाई में मराठों की हार न हुई होती तो आज का भारत क्या होता। सबसे पहले तो, मराठाओ द्वारा दिल्ली में हिंदू राष्ट्र की स्थापना हो चुकी होती। और अंग्रेज उस शक्तिशाली मराठा साम्राज्य को हरा नहीं पाते। मराठाओ में भारतीय भूमि और भारतीय संस्कृति के प्रति एक भयानक जुनून था। मैं नहीं मानता की वो जूनून अंग्रजो को भारत में शासन स्थापित करने देता। तो, आज हमारा राजनीतिक स्वरूप क्या होता, हम कितने स्थिर होते और हम सत्ता के लिए अंदर ही अंदर कितना लड़ रहे होते, इन सभी सवालों का जवाब देना मुश्किल है। क्योंकि मराठाओ को सिर्फ सत्ता हासिल करने ही आता था। सत्ता को बनाए रखना और योजनाबद्ध तरीके से जीते हुए राज्य को चलाना नहीं आता था।

यह श्रेष्ठ कौशल अंग्रेजो में था, जिससे हम आज हैं वैसी यूरोप और अमेरिका की लोकतांत्रिक राजयव्यवस्था में आए। अगर पानीपत में मराठा जीते होते, तो लोकतंत्र भारत में आ पाता या नहीं? आता तो कैसे आता? ऐसे अनेक सवाल हैं, लेकिन एक बात तय है कि अगर वह जीत गए होते तो आज पाकिस्तान और बांग्लादेश का अस्तित्व न होता। आज भी एक अखंड हिंदू बहुल भारत में हम जी रहे होते। बाजीराव ने जब मराठा साम्राज्य की स्थापना की थी, तब भारत की आनेवाली पीढ़ियों के लिए यही उनका स्वप्न था। वही सपना जो शिवाजी ने दिया था। और पानीपत के युद्ध में वह सपना अपने अंतिम पड़ाव पर आके टूट गया। और आज हम एक अलग परिस्थिति में जी रहे हैं और एक अलग तरह के संघर्ष से वहां पहुंचना चाहते हैं। तो बोध यह है कि चाहे समय और परिस्थिति कोई भी करवट ले, हमें हमारा सत्व, आदर्श और सत्य के प्रति निष्ठा बनाए रखनी चाहिए और हमसे जो हो सकता हैं वो करते रहेना चाहिए। यही भारतीय आदर्श हैं जिसने किसी न किसी तरह इस सभ्यता को हजारों वर्षों तक जीवित रखा है। जब कभी इसके नाश होने का भय उत्पन्न हुआ है, तब तब कोई शिवाजी, कोई बाजीराव, कोई विवेकानंद या कोई गांधी या सुभाषचंद्र बोस इस आदर्श के साथ उठ खडा हुआ  हैं।