Published on February 05, 2018/ On Facebook
'अंतिम संवादों और दृश्यों में, पद्मावती एक देवी के रूप में उभरती हैं, जो अधर्म को हराने और सत्य की रक्षा करने के लिए गर्व से आग की लपटों में चली जाती हैं।'
तो, कल पद्मावत देखी। रात के एक बजे जब फ़िल्म ख़त्म हुई तो पिछले आधे घंटे से दबी हुई पीड़ा आंसू बनकर निकल पड़ी। मैंने पहले भी कहा हैं कि भारतीय इतिहास में माता सीता और पद्मावती के साथ जो हुआ हैं उसे मैं कभी बर्दाश्त नहीं कर पाया हूँ। लेकिन कल रोना सिर्फ़ माँ पद्मावती के बलिदान पर नहीं आया। कल रोना इस देश की बदकिस्मती पर आया की जिस फ़िल्म की रिलीज़ के समय समग्र भारत में उत्सव का माहौल होना चाहिए था, जिस फ़िल्म को देखने जैसे सैनिक मार्च करते हो इस तरह हर नागरिक थियेटर में प्रवेश करना चाहिए था, उस फ़िल्म और उसको बनानेवालों को किस हद तक परेशान किया गया। रोना आया उन बनबैठे मुर्ख देशभक्तो और हिंदूभक्तो पर जो बिना फ़िल्म देखे सडको पर और सोशियल मिडिया पर इस फ़िल्म के विरोध करने में अपने जीवन की सार्थकता समज रहे थे। रोना आया इस बात पर कि वामपंथियों और मुसलमानों से भरी फ़िल्म इन्डस्ट्री में जहाँ अकबर पर दो-दो बड़ी फ़िल्में बनीं, लेकिन महाराणा प्रताप पर फ़िल्म बनाने का किसीने साहस नहीं किया, ऐसी इन्डस्ट्री में पेश्वा बाजीराव और रानी पद्मावती पर दो-दो भव्य फ़िल्म बनानेवाले संजय लीला भंसाली पर जो अत्याचार हुए, उसके बाद क्या और कोई इन मुर्ख हिन्दुओ के लिए फ़िल्म बनाने का साहस करेगा?
रानी पद्मावती को गहराई से जी लेने वाली दीपिका पादुकोण का सर क़लम करने की घोषणा हुई तब उसे क्या लगा होगा की पद्मवतीने आख़िर किसके लिए बलिदान दिया? इन कीड़ो के लिए? रोना आया उन वाहियात नेताओ पर भी जो फ़िल्म का ‘फ‘ भी न जानते होने के बावजूद सिर्फ़ किसी के वोट पाने के लिए फ़िल्म को रिलीज़ न होने देने की धमकिया और घोषणाएँ कर रहे थे। वाहियात इसलिए क्योकि उन लोगों की हेसियत ही नहीं हैं हिंदुत्व के लिए कुछ करने की। उन्हें तो सिर्फ़ अपने वोट से मतलब हैं। हिंदुत्व और क्षत्रियता को सही मायने में रोशन करने का काम तो इस गुजराती फ़िल्ममेकर ने किया हैं, जिसकी फ़िल्म गुजरात में ही रिलीज़ न होने दिया गया।
अब फ़िल्म की बात। राजा रतन सिंह मोतियों का हार टूट जाने से रूठी हुई अपनी पहेली पत्नी को मनाने के लिए सिंघल देश में मोती लेने जाते हैं। वहाँ सिंघल की सुन्दर राजकुमारी पद्मावती और राजा रतनसिंघ प्यार में पड़ जाते हैं। दोनों शादी करके ही मेवाड़ वापस आते हैं। मेवाड़ में, पद्मावती की सुंदरता से आकर्षित एक ब्राह्मण जो रतनसिंघ का गुरु भी हैं वह चोरी छुपी रतनसिंघ और पद्मावती के प्रणय को देखने की कोशिश करता हैं। एक मत के अनुसार वह ब्राह्मण नहीं, कोई कवि था, पर फिल्म में उसे ब्राह्मण दिखाया गया है। अगर इसका कोई एतिहासिक प्रमाण न मिले तो वह सवाल उठाने लायक एक बात जरूर है। अब रतनसिंह को यह पता चल जाता है और पद्मावती के कहने पर वह उस ब्राह्मण का देशनिकाल करवा देता हैं। ब्राह्मण पद्मावती का बदला लेने के लिए दिल्ही के घातकी और स्त्रियों के शौखिन सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के पास जाता हैं और कहता हैं, ‘पुरे भारत की सबसे सुन्दर स्त्री तो पद्मावती हैं, अगर वह आपको नहीं मिली तो आपको कुछ नहीं मिला हैं।” यह सुनते ही क्रूर खिलजी पद्मावती को पाने के लिए सेना लेकर मेवाड़ पर चढ़ाई करने आ जाता हैं।
और यहाँ से शुरू होता हैं अपनी रानी की शान बचाने के लिए मेवाड़ के बहादुर राजपूतो का संघर्ष। खिलजी के सामने बहादुरी से लड़ते रतनसिंघ जैसे सिर्फ़ अपनी पत्नी और प्रेम के लिए ही नहीं बल्कि अपनी संस्कृति के लिए भी लड़ रहे हो ऐसा लगता हैं। जब वह अलाउद्दीन खिलजी को हराके मारने जा ही रहे होते हैं तभी खिलजी कपट से उन्हें मार देता हैं। यह ख़बर सुनते ही पद्मावती सभी राजपुतानियों को अपने भवन में बुलाकर भवन बंध करा देती हैं। यहाँ पद्मावतीने राजपुतानियों को जोहर कर लेने के लिए दी स्पीच भव्य हैं। खिलजी और उसके सैनिक भवन में प्रवेश करे उससे पहले ही पद्मावती के पीछे सारी राजपूतानियां जोहर करके जल जाती हैं। जो अलाउद्दीन पद्मावती को पाने के लिए आया था, उसे पद्मावती का चेहरा तो दूर उसकी परछाई या मृत शरीर भी देखने को नहीं मिलता हैं। यही उसकी सबसे बड़ी हार साबित होती है।
सन 712 में पहला इस्लामी आक्रमणकारी मोहम्मद बिन कासम भारत में आया तब से इस्लाम का यही युद्ध मॉडल था। कासम की सेनाने सिंध और बलूचिस्तान में हिन्दू पुरुषो का गला काटकर मार दिया था और उनकी स्त्रियों को गुलाम बनाया था। उन गुलाम स्त्रियों में से पांचवे भाग की स्त्रियां आरब में उनके खलीफा को भेजी जाती और बाकि की सेना के सैनिको में बाँट दी जाती। उस समय से ही इन जानवरों से बचने के लिए हिन्दू स्त्रियोने अपना शरीर ही जला के भस्म कर देने का जौहर का यह तरीक़ा खोजा था। एक या दुसरे तरीके से आज भी जो-जो प्रदेश मुस्लिम बहुसंख्य हुआ, वहा अन्य धर्म की स्त्रियों के साथ यही किया गया हैं। चाहे वह पाकिस्तान हो, बांग्लादेश हो या कश्मीर घाटी में पंडितों के साथ जो हुआ वह हो। लेकिन मा पद्मावती का जौहर इन सबमें गौरवशाली माना जाता है, क्योंकि वह कोई डर से किया गया जौहर नहीं था। यह जौहर खिलजी को हराने के लिए किया गया था। उसी में खिलजी की हार थी और जौहर करते हुए दीपिका पादुकोण ने वही स्वाभिमानी हावभाव दिए हैं जो माँ पद्मावती की पहचान हैं। अंतिम संवादों और दृश्यों में, पद्मावती एक देवी के रूप में उभरती हैं, जो अधर्म को हराने और सत्य की रक्षा करने के लिए गर्व से आग की लपटों में चली जाती हैं।
यही वह बलिदान हैं, यही वह स्वाभिमान हैं जिसने आठ सौ साल तक इस सभ्यता को इन जानवरों जैसे विदेशी आक्रांताओं से बचाया है। इस फ़िल्म का विरोध टीवी चैनलों पर मोहम्मद बिन कासम, अलाउद्दीन खिलजी और औरंगजेब को खुलेआम अपना हीरो कहने वाले भारतीय मौलाना और मौलवियों ने किया होता तो समज सकते थे। लेकिन जिन लोगों के स्वाभिमान के लिए फ़िल्म बनाई गई है उन्ही लोगों ने पिछले कुछ महीनों में जो किया उसने वास्तव में हमें दुनिया के सामने हास्यास्पद बना दिया है। एक तरफ़ जहाँ वामपंथी पत्रकार और फ़िल्मकार इस फ़िल्म को मुस्लिम विरोधी और प्रखर हिंदूवादी कहकर संजय लीला भंसाली को लताड़ रहे हैं और वहीं दूसरी तरफ़ प्रखर हिंदुवादिओने ही इस फ़िल्म को कई राज्यों में रिलीज होने से रोक रखा हैं। इस मामले में दीपिका पादुकोण ने जो कहा वह काफ़ी है, ‘हम (इतने अत्याचारों और गुलामी के बाद) प्रतिगामी (रिग्रेसिव) हो गए हैं।‘ हमारा आत्मविश्वास खो गया है। हम हर चीज को शक की नज़र से देखते हैं। हमारे लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा हैं यह पहचानने की शक्ति हम खो चुके हैं। हम अपने ही लोगों और अपने हित के लिए हो रहे कार्यो को विफल करने की कोशिश करते रहते हैं। एक तरह से माँ पद्मावती के बलिदान का वर्तमान परिणाम यही है, जो हमें माँ पद्मावती पर फ़िल्म बनने से ही पता चला।
अंत में, जेएनयू में राष्ट्र विरोधी नारेबाजी का समर्थन करने वाली, वामपंथी मानसिकता वाली और ‘प्रेम रतन धन पायो‘ में सलमान खान की बहन की भूमिका निभाने वाली स्वरा भास्कर को जवाब, इस देवी जी ने पद्मावत देखने के बाद एक वामपंथी वेबसाइट पर चिट्ठी लिखकर कहा, ‘बकवास फ़िल्म। फ़िल्म देखने के बाद मुझे केवल यही संदेश मिला कि मेरी वजाइना की कुछ क़ीमत है।’
डियर स्वरा, इसमें ऐसा हैं की, जब इस देश की संस्कृति की शुरुआत हुई थी, तब माँ और शक्ति के तौर पर केवल योनि (जो वजाइना और गर्भ की संयुक्त रचना है) की ही पूजा की जाती थी। क्योंकि वहीं से हमारा अस्तित्व शुरू होता है। तो कुछ वजाइना वास्तव में बहुत ही दिव्य और मूल्यवान होती हैं क्योंकि वे कुछ महान लोगों को जन्म देती हैं तो कुछ महान लोगों के बच्चों को जन्म देती हैं। पर बेशक, कुछ वजाइना मूल्यहीन ही होती हैं। क्योंकि यह सभी के लिए आसानी से उपलब्ध होती हैं और उसमे से ज्यादातर उत्पात मचाने वाले कीड़े ही पैदा होते है। और अगर इस फ़िल्म को देखने के बाद ऐसी किसी वजाइना को अपने मूल्य का कुछ एहसास हुआ है, तो वास्तव में यही इस फ़िल्म की मुख्य सफलता है।