कौन है हम भारतीय?

Epilogue of the Early India History Articles/ Written on 28 July, 2022

‘हम भारतीय इस पृथ्वी पर मानवजाति के शुरुआती क़दमों के वह दस्तावेज है, जिन्होंने पृथ्वी पर मानवता की यात्रा को अपनी जीवन पद्धित और अपने शास्त्रों में संभालकर रखा है।’

क्या मतलब होता है हमारा, जब हम कहते है की हम भारतीय है? वह भौगोलिक सीमाएँ जो आज है, या वह जो आज से अस्सी साल पहले 1942 में थी, वह जो आज से पंद्रह सो साल पहले थी, या वह जो आज से दस हज़ार साल पहले थी? यही हमारी विडंबना है। क्योंकि अगर हम एक भौगोलिक देश को भारत कहे, तो 1940 में हमारे दादा जिसे भारत कहते थे, उसका एक बड़ा हिस्सा आज के भारत में नहीं आएगा। हमारे दादा 1940 में जिसे भारत कहते थे, उसमें भी वह हिस्सा नहीं था जिसे सन 500 में हमारे पूर्वज भारत कहते थे। सन 500 के हमारे पूर्वज जिसे भारत कहते थे, उसमें वह प्रदेश नहीं आते थे, जो आज से दस हज़ार साल पहले के हमारे पूर्वजों के भारत में आते थे।

तो फिर हम किसकी बात कर रहे होते है, जब हम भारत ‘शब्द’ बोलते है? हम एक सभ्यता की बात कर रहे होते है, जो एक जीवन पद्धति पर आधारित है और कुछ शास्त्रों पर आधारित है। अब जीवन पद्धति के किस्से में भी विडम्बना है। वह सारे भौगोलिक प्रदेश जो कभी ‘भारत’ कहलाते थे, और आज नहीं कहलाते, उसकी सिर्फ़ एक ही वजह है – उस जीवन पद्धति को उन प्रदेशों में खतम कर दिया गया है। तो असल में अन्य देशों की तरह भारत देश ने अपने प्रदेश तब नहीं गँवाए जब भारत का सैन्य युद्ध हार गया। हमने वह प्रदेश तब गँवाए, जब वहाँ से भारतीय जीवन पद्धति को नष्ट कर दिया गया। तो जीवन पद्धति और भौगोलिक प्रदेश साथ साथ सिकुड़ें है। पर वह शास्त्र जिन्हें मानव सभ्यता की शुरुआत से लिखे गए थे, वह आज भी वही है, जैसे वे उस वक्त थे जब उन्हें लिखा गया था। वह शास्त्र शुरू होते है तब से जब आधुनिक मानव अभी आफ़्रिका से बाहर नहीं निकला था। उनमें मानवजाति के आफ़्रिका वाले जीवन के भी साक्ष्य है, तो आफ़्रिका से बाहर निकलकर भारतीय उपमहाद्वीप में क्रमशः फैलने के भी साक्ष्य है। और वे शास्त्र ही हमें बताते है की हम कौन है, और हमें अपने आप को किस तरह देखना चाहिए?

उन सनातनी शास्त्रों के मुताबिक़ कभी हमारी सभ्यता ही मानव सभ्यता थी, और हम आफ़्रिका में रहते थे। फिर एक जल सुनामी और शितयुग आया जिससे बचकर हम अफ़्रीका से पूर्व की ओर बाहर निकले। हमने आफ़्रिका से पूर्व के उन विशाल मेदानों में अपनी शुरुआती सभ्यता बनाई, और हमने उस सभ्यता को नाम दिया ‘ब्रह्मवर्त’। क्योंकि हमने इस संसार को रचनेवाली और चलानेवाली शक्ति को यही नाम दिया था, ‘ब्रह्म’। तो वह ‘ब्रह्म का प्रदेश’ था, इसीलिए हमने उसे ‘ब्रह्मवर्त’ कहा। यह वही ब्रह्मवर्त था जिसके आज के अरब, ईरान और मिस्र से लेकर गंगा तट तक के प्रदेश आते थे। हज़ारों साल के ब्रह्मवर्त के युग में मानवों के समूह पृथ्वी पर नए नए प्रदेशों को खोजने के लिए समय समय पर ब्रह्मवर्त से बाहर निकलने लगे। चारों दिशाओं में निकले उन अलग अलग समूहों ने अलग अलग प्रदेशों में मानव सभ्यता को शुरू किया। 

आज के लोग हमारी उसी ब्रह्मवर्त की सभ्यता के कुछ अवशेष ढूँढ पाए है, और वे उसे ‘सिंधु-घाटी की सभ्यता’ कह रहे है। ब्रह्मवर्त की वह सभ्यता हमारी प्यारी पूजनीय सरस्वती नदी के किनारे विकसित और एकत्र हुई थी। पर जब सरस्वती नदी सूखने लगी, तब हम वैसी ही बड़ी नदी की खोज में और पूर्व की ओर बढ़े। वहाँ हमारी ब्रह्मवर्त की सभ्यता के छोटे-मोटे गाँव और शहर हुआ करते थे। इसीलिए हमें वहाँ की बड़ी नदियों के बारे में जानकारी थी। इस तरह हम स्थानांतर करके गंगा और यमुना के तट पर एकत्रित होने लगे। 

धीरे-धीरे पूरी ब्रह्मवर्त की सभ्यता उसके पूर्वी सीमाओं पर बसे गांव और शहरों की ओर केंद्रित होने लगी। और इसी सभ्यता में वेदों और उपनिषदों का आगे का विकास हुआ। अब सभ्यता में हर इंसान के लिए आध्यात्मिक रूप से जागरूक बनना और नितिवान बनना एक लक्ष्य बना। वैसे इंसान के लिए उस वक्त की सभ्यता की भाषा संस्कृत में शब्द था ‘आर्य’। उस सभ्यता के लोग अपने आप को ‘आर्य’ कहने लगे। और वह सभ्यता ‘आर्यवर्त’ कहलाई। आर्यावर्त भी ब्रह्मवर्त की तरह एक सांस्कृतिक राष्ट्र था जिसमें अनेक राजनीतिक सत्ताएँ थी। पर मानव जीवन के मूल लक्ष्य के रूप में जीवन के अंतिम सत्य को खोजने और अनुभव करने की बात थी। और इस लक्ष्य के लिए राष्ट्र के अलग अलग प्रदेशों को अपने अनुकूल मार्ग और तरीक़े अपनाने की छूट थी। मानव जीवन के इस एक लक्ष्य को पाने का आहवान ही आर्यवर्त की राष्ट्रीयता थी। इसी विस्तृत राष्ट्रीयता की वजह से पश्चिम से लेकर पूर्व तक और उत्तर से लेकर दक्षिण तक आफ़्रिका के पूर्व का पूरा मेदानी प्रदेश कभी ब्रह्मवर्त तो कभी आर्यवर्त राष्ट्र का हिस्सा था। सब के अपने अपने मार्ग थे, अपने अपने देवी-देवता थे, अपने अपने पहनावे, भाषाएँ और खाना था, पर लक्ष्य एक था। ब्रह्म के साथ अपने एकत्व का साक्षात्कार करना। इसी ब्रह्मवर्त और आर्यावर्त से लोगों के समूह मध्य एशिया, रशिया और यूरोप तक पहुँचे तो दक्षिण में इंडोनेशिया और ओस्ट्रेलिया तक भी पहुँचे। 

इस तरह ब्रह्मवर्त की सभ्यता ही आर्यवर्त नाम के साथ आगे बढ़ी। उसी आर्यवर्त की मूल भूमि में सूर्यवंश और चंद्रवंश नाम के दो प्रमुख शासक वंश अस्तित्व में आए और चंद्रवंश के एक प्रतापी एवं आदर्शवादी राजा ‘भरत’ के नाम से आर्यवर्त को ‘भारतवर्ष’ नाम दिया गया। क्योंकि भरत ने स्वयं के नौ पुत्र होने के बावजूद अपने राजनैतिक वारिस के रूप में राज्य के एक सैनिक को चुना था, जो प्रजा की ज़िम्मेदारी वहन करने के लिए सर्व रूप से योग्य था। यही भारतवर्ष की नींव थी, व्यक्ति का मूल्यांकन, उसका चुनाव – जन्म से नहीं, उसके गुणों से करना। आगे चलके यही भारतवर्ष, महाभारत और भारत कहलाया। लेकिन इसी भारत के सुदूर पश्चिम में आगे चलकर अलग पंथ अस्तित्व में आए, जिनमे मानव जीवन का लक्ष्य कुंठित होकर दिखाया गया। वह लक्ष्य सर्व शक्तिमान परब्रह्म से एकत्व से हटकर मृत्यु के बाद किसी परग्रहीय स्वर्ग में जाकर सारे इंद्रिय सुख भोगना बन गया। और स्वर्ग की टिकट किसी ख़ास तरह की उपासना पद्धति से ही मिलेगी, उसके सिवा अन्य किसी मार्ग से नहीं – यह कहा गया। साथ में यह भी उसमें डाला गया की सारे मनुष्यों को यही लक्ष्य और यही मार्ग अपनाना होगा, जो इसे नहीं अपनाएगा उसे मार देने का ईश्वर का फ़रमान है। यह वह पंथ थे जहां तुम्हें सवाल पूछने की छूट नहीं थी, तुम्हें सत्य खोजने की छूट नहीं थी। तुम्हें जो कहा गया है, उसे मान लेना था। इन पंथो ने आफ़्रिका और उसके निकर पूर्व के सारे प्रदेशों को अपने शासन में ला दिया। इस तरह उन हिस्सों में आर्यवर्त का राष्ट्रीय और आध्यात्मिक एकत्व खतम हो गया। धीरे-धीरे उस पंथ ने पूर्व में भारतवर्ष की ओर रुख़ किया और हिंसा के मार्ग से भारतवर्ष के प्रदेश जीतकर भारतीय जीवन पद्धति को खतम करना शुरू किया। ईसा के बाद की सातवीं सदी में हमने गांधार और तक्षशिला का प्रदेश खोया, फिर आगे चलकर पूर्व में इंडोनेशिया खोया। और फिर पिछली सदी में सिंध, बलोचिस्तान, पंजाब  और बंगाल का एक बड़ा प्रदेश खोया। 

इस तरह हम भौगोलिक रूप से सिकुड़ते गए, और अगर भौगोलिक रूप से देखे तो मानवजाति के इतिहास का दूसरा अर्थ भारत या आर्यवर्त या ब्रह्मवर्त के भौगोलिक रूप से सिकुड़ने का ही इतिहास है। पर हमारी सभ्यता और राष्ट्रीयता तो हमेशा से मानव जीवन के सनातनी लक्ष्य और हमारे सनातनी शस्त्रों से थी। तो, भारत देश भौगोलिक रूप से चाहे कितना भी हो, भारत राष्ट्र के रूप में हमारा इतिहास पृथ्वी पर आधुनिक मानवों का इतिहास है। हम आधुनिक मानवों की आफ़्रिका से ब्रह्मवर्त तक आने की,  ब्रह्मवर्त से चारों ओर फैलकर नई सभ्यताए बनाने की और ब्रह्मवर्त से आर्यवर्त में होते हुए भारतवर्ष में आने तक की यात्रा का इतिहास है। हम भारतीय इस पृथ्वी पर मानवजाति के शुरुआती क़दमों के वह दस्तावेज है, जिन्होंने पृथ्वी पर मानवता की यात्रा को अपनी जीवन पद्धति और अपने शास्त्रों में संभालकर रखा है। हम वह जड़ है जिसने तना बनकर मानव सभ्यता की अनेक नई शाखाओं को जन्म दिया है, और फिर भी उस मूल तने और जड़ से जुड़ी हुई एक बड़ी शाखा को डाली, पत्ते और फलों के साथ पूर्ण रूप से जीवित रखा है। हम आफ़्रिका से बाहर निकले होमों सेपियंस के वह सच्चे वारिस है, जो उनकी अब तक की यात्रा का आधुनिक युग में प्रतिनिधित्व करते है। यही हमने इस लेख शृंखला के पहले चार लेखों में वैज्ञानिक और ऐतिहासिक साक्ष्यों के saath बताया है। अब बस हमें यह तय करना है, की हम इस विरासत को आगे कैसे बरकरार रखेंगे? उसके लिए हमें हमारी वर्तमान व्यवस्थाओं में और सोच में क्या बदलाव लाने होंगे? अब आगे हम कैसे रहेंगे, ‘चिर पुरातन, पर नित्य नवीन’? कौन सी वह नवीनता अब हमें लानी होंगी, जिससे हम भारतीय सभ्यता को तब तक जीवित रख सके, जब तक आख़री होमो सेपियंस इस धरती पर घूम रहा है।