Written By Dr. Kaushik Chaudhary
Published on February 28, 2016/ ‘Projector’ column at Ravipurti in Gujarat Samachar Daily
"JNU में प्रकट हुए राष्ट्र-विरोधी जीन में जिहादी और कम्युनिस्ट विचारों का कॉकटेल है। लेकिन नई पीढ़ी जिसके बारे में बहुत कम जानती है वह साम्यवाद, आतंकवाद को जिहाद की तुलना में कई अधिक मुलभुत सहमति देता हैं।”
उन्नीसवीं सदी के मध्य तक, पूंजीवाद अपने चरम पर था और उसने दुनिया को अमीर और गरीब ऐसे दो वर्गों में विभाजित कर दिया था। जब इन दोनों वर्गों के बीच की खाई ज़्यादा चौड़ी होने लगी, तब कुछ बुद्धिजीवियों को यह विचार आया कि मानवजाति, जो एक साथ अस्तित्व में आई हैं और जिसके पूर्वज एक साथ अफ्रीका से बाहर आए थे, उस मानवजाति का एक वर्ग पृथ्वी पर अधिकांश संपत्ति का मालिक हैं और दूसरा वर्ग इतना असहाय है कि उसे दो वक़्त का भी खाना मुश्किल से मिलता है। ऐसा क्यों? उत्तर एक ही था, उत्पादन का असमान वितरण। मुट्ठीभर पूंजीपतियों के हाथ में देश की तमाम दौलत चली जाए और बाक़ी की आबादी उनके द्वारा फेंके गए टुकड़ो पर जिये – यह रचना मनुष्यो ने ही उत्पन्न की हैं। यह कोई कुदरत का नियम नहीं है। ऐसी ही कुछ विचारधारा कार्ल मार्क्स 1851 में अपनी पुस्तक ‘धी कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो‘ में लेकर आए।
कार्ल मार्क्स के इस विचार के अनुसार पूंजीवादी व्यवस्था एक राक्षस है और उसने मनुष्य को अनेक वर्गों में विभाजित कर दिया हैं। हरेक इंसान का पृथ्वी की संपत्ति पर सामान अधिकार हैं। इसलिए वह संपत्ति सब में सामान रूप से बँटनी चाहिए। इस प्रकार की व्यवस्था को उन्होंने ‘साम्यवाद‘ या अंग्रेज़ी में ‘कॉम्यूनिज़म‘ नाम दिया। लेकिन यह व्यवस्था अमल में कैसे लाए? उन्होंने इसके लिए दो नाम दिए। एक ‘पूंजीपतियों की तानाशाही‘ और दूसरी है ‘मजदूरवर्ग वर्ग की तानाशाही‘। उन्होंने कहा कि कोई भी सरकार अंततः आर्थिक सशक्तिकरण को ही प्राथमिक लक्ष्य मानेगी। इसलिए उसे उद्योगपतियों और जमींदारों को ही प्रोत्साहन देना पड़ेगा और उससे निर्माण होगी एक सामंतशाही और पूंजीवादी व्यवस्था जो एक तरीके से कोई लोकतांत्रिक सरकार नहीं बल्कि पूंजीपतियों की तानाशाही ही है। दुनिया में ज़रूरत हैं मजदूरों की तानाशाही की। जहाँ मज़दूर देश का राजनीतिक नियंत्रण सम्पूर्णतः अपने हाथ में ले-ले और उसके बाद देश में जो भी उत्पादन हो उसका कुछ हिस्सा देश के विभिन्न विभागों को चलाने के ख़र्च के लिए और कुछ हिस्सा देश की संरक्षण के लिए ख़र्च हो। कुछ हिस्से का सूखा, भूकंप या युद्ध जैसे आपातकाल के समय के लिए संग्रह किया जाए। इसके बाद जो हिस्सा बचे उसे लोगों के बीच उनके द्वारा कि गई मजदूरी के अनुपात में बाँट दिया जाए। जिसकी मजदूरी ज़्यादा उसे ज़्यादा वेतन, जिसकी मजदूरी कम उसे कम वेतन।
इस तरह की राजनीतिक व्यवस्था से, समाज से उच्च और निम्न वर्ग पूरी तरह से नष्ट हो जाएंगे। शासन प्रणाली में भी, किसी एक काम को नीचे वाला इंसान करके ऊपरवाले को दे तो ऊपरवाला नीचेवाले का आभार माने की ‘धन्यवाद, आपने इतना काम कर दिया, जिससे में अब इसके आगे का काम कर सकता हूँ।‘ वह अपना काम करके आगे भेजे तो आगेवाला उसे ‘थेंक यु‘ कहे। इस प्रकार प्रत्येक कार्य क्रमिक रूप से हो लेकिन कोई किसी का मालिक नहीं। सभी को उनके श्रम के अनुसार समान वेतन मिले। एक तरह से जैसे मजदूरों की ही सरकार, जिसमें कोई पूंजीपति नहीं बन सकता। 1851 में ‘कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो‘ से शुरू हुए इस विचार को मार्क्स ने 1876 में अपनी किताब ‘द क्रिटिक ऑफ द गोथा प्रोग्राम‘ से आख़री स्वरूप दिया।
मार्क्स की साम्यवादी विचारधारा उन्नीसवीं सदी की सबसे बड़ी खोज और क्रांति थी। स्वाभाविक रूप से संवेदनशील बुद्धिजीवी, युवा और विचारक उसकी ओर आकर्षित हुए। वह मानवता के समान होने के सपने को पूर्ण करने का एक शक्तिशाली हथियार और आशा की किरण था। लेकिन, सवाल यह था कि इस साम्यवाद को लागू कैसे किया जाए। जब तक ताकतवर उद्योगपति और उनकी जेब में रहे नेताओं के पास सत्ता थी, तब तक मजदूरों की तानाशाही कैसे आ सकती है? यहाँ 1876 के बाद कुछ जर्मन विचारकों ने सुझाव दिया ‘समाजवाद‘ का। समाजवाद यानी साम्यवाद की तरह ही एक वर्गहीन समाज बनाने की विचारधारा, लेकिन जिसमें सरकार धीरे-धीरे अपनी नीतियों को पूंजीपतियों से मोड़कर गरीब और मजदूरलक्षी बनाये। सरकार पूंजीपतियों की संपत्ति टेक्ष के द्वारा धीरे-धीरे गरीबो तक पहुँचाए और उन्हें सशक्त बनाए। भारत एक समाजवादी राष्ट्र है, ऐसा लक्ष्य संविधान की प्रस्तावना में डाला गया है। समाजवाद एक धीमा और नरम मार्ग था साम्यवाद की सम्पूर्ण समानता तक पहुँचने का। दुनियाभर से समाजवादी विचारक आगे आए और सरकारों को पूंजीवादी से समाजवादी व्यवस्था में बदलने के लिए दबाव करते आंदोलन किए। बीसवीं सदी के पूर्वार्ध तक ये सभी समाजवादी आंदोलन जारी रहे लेकिन सरकारों ने उनसे किए वादों को पूरा नहीं किया और एक तरह से पूंजीवादी विश्व के सामने समाजवाद का आदर्शवाद अव्यावहारिक साबित हुआ। और यहाँ एन्ट्री हुई लेनिन की।
रूसी क्रांतिकारी लेनिन ने घोषणा की कि जिस तरह से दुनिया पूंजीपतियों के नियंत्रण में हैं, ऐसे में हिंसक आंदोलनों के बिना साम्यवाद के एक वर्गहीन समाज की स्थापना असंभव हैं। उसने कहा कि पूंजीपतियों और उनसे जुड़े नेताओं का खून बहाकर और उन्हें रास्ते से हटाकर ही मज़दूर देश की सम्पूर्ण सत्ता अपने हाथ में ले सकते हैं। लेनिन ने 1917 में रूस में इसी हिंसक तरीके से सोवियत क्रांति की, और मार्क्स के विचारों को हिंसा, आतंकवाद और दमन के माध्यम से व्यवहारीक बनाया। इस तरह जन्म हुआ साम्यवादी सोविएत यूनियन का और यहाँ से साम्यवाद व्यवहारिक बन गया। दुनिया के कई देशों में साम्यवादि क्रांति होने लगी। भारत में भी अंग्रेजो को खदेड़कर साम्यवादी व्यवस्था स्थापित करने के लिए 1925 में ‘कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया‘ की स्थापना हुई जो महात्मा गांधी के अहिंसा के मार्ग से विपरीत थी। भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी भी लेनिन के चाहक बन गए। चीन में भी माओ झेडोंग ने इसी तरह से हजारों लोगों का खून बहाकर चीनी साम्यवाद की स्थापना की। माओ झेडोंग ने प्रसिद्ध निवेदन किया की “सत्ता बंदूक की नली से निकलती है।” इससे साम्यवाद की स्थापना के लिए लेनिन के मार्ग से ‘लेनिनिस्ट‘ और माओ झेडोंग के रास्ते से ‘माओईस्ट‘ पंथ अस्तित्व में आए, जो दोनों हिंसक मार्ग को दर्शाते थे बस उनकी शासन प्रणाली में थोड़ी भिन्नता थी।
अब कम्युनिस्ट विचारधारा दुनिया में एक वायरस की तरह फैली और इससे यूरोप और अमेरिका जैसी पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं के सामने संकट पैदा हुए। अमेरिका के पड़ोसी क्यूबा में फिडेल कास्त्रो ने इसी तरह के आतंकवाद से ही साम्यवादी क्रांति की। जिन्होंने ने हॉलीवुड की फ़िल्में देखी हैं, वे जानते ही होंगे की जॉर्ज कैनेडी के समय में फिडेल कास्त्रो के साथ अमेरिका कितने भयानक संघर्ष में था। कारण एक ही था, अमेरिका को साम्यवाद से बचाना।
लेकिन, धीरे-धीरे साम्यवाद की कमियाँ सामने आने लगीं। लोगों में आर्थिक समानता तो आई लेकिन वेतन का वितरण केवल मजदूरी के आधार पर था। इससे, बुद्धिमता की उपेक्षा होने लगी। नतीजतन, विज्ञान, टेक्नोलॉजी और औद्योगिक क्रांति जैसे क्षेत्रों में अमेरिका जैसे पूंजीवादी देश साम्यवादी देशों से कई ज़्यादा आगे निकल गए। साथ ही, आगे बढ़ने की जन्मजात मानवीय इच्छा का साम्यवादी समाज में दमन होता था और ऐसा लगा जैसे गरीब होना ही मानवता है। विकास का विरोध यानी साम्यवाद-ऐसे नए अर्थघटन सामने आए। परिणामस्वरूप चीन जैसे देशों को भी 1980 के बाद साम्यवादी सामाजिक व्यवस्था में पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को घुसेड़ना पड़ा।
इस प्रकार, पूंजीवादी देशों की शक्ति बढ़ने लगी और साम्यवाद मानवता के बजाय कमजोरी और गरीबी का पर्याय बन गया। अब साम्यवादी विचारधारा के लिए दो ही विकल्प थे। एक- अपनी विचारधारा को अव्यवहारिक घोषित करके ख़त्म कर देना। या दूसरा – दुनिया से सारे पूंजीवादी देशों को खत्म कर पूरी दुनिया को साम्यवादी बना देना जिससे साम्यवाद से बड़ी शक्ति कहीं और मौजूद न हो। और इस तरह साम्यवादी पार्टीयाँ चाहे जिस भी देश में हो, उनके लिए देशो की जमीनी सीमाओं से ज्यादा साम्यवाद के लाल झंडे की सीमाए मुख्य हो गयी। जहां जहाँ साम्यवाद है, वह हमारा देश हैं, जहां नहीं है, वह शत्रु देश है। भले ही भारत में रहते हो, किसी भी धर्म का पालन करते हो, लेकिन भारत में साम्यवाद नहीं है … तो उसके टुकड़े टुकड़े करके लोकतांत्रिक या लेनिन या झेडोंग के रास्ते से उसे साम्यवादी बनाना ही किसी भी साम्यवादी पार्टी का लक्ष्य हैं। अब समझ में आया ना की जेएनयू में उन जिहादियों के साथ नारे लगाने वाले हिंदू कौन थे और क्यों वे उस प्रकार के नारे लगा रहे थे?