पेशवा बाजीराव और मेवाड़ के राणा का एक ऐतिहासिक प्रसंग

Written By Dr. Kaushik Chaudhary

Published on April 07, 2020/ On Facebook

'जिस सिंहासन पर महाराणा प्रताप बैठ चुके हो, उसकी बरोबरी में मैं कैसे बैठ सकता हूँ राणा...? वह आपका स्थान है, आप बैठिये। मैं सही जगह पर बैठा हूँ।'

सन 1736 में पेशवा बाजीराव अपनी दोनों पत्नियां काशीबाई और मस्तानी के साथ राजस्थान की यात्रा पर गए थे। उनके साथ सेना का एक दल भी था। सबसे पहले वे मेवाड़ प्रांत के राणा जगतसिंघ, जो महाराणा प्रताप के वंशज थे उनसे मिलने के लिए उदयपुर गए। यह जानकर कि पेशवा बाजीराव उदयपुर आ रहे हैं, राणा जगतसिंघ अपने सभी दरबारी मंत्रियों और राज्य के प्रमुख सामन्तो के साथ शहर के बाहर मुख्य द्वार तक गए और बाजीराव का उनके कारवां के साथ स्वागत किया। यह वह समय था जब पेशवा बाजीराव ने अपने सोलह साल के करियर में 35 से अधिक लड़ाइयाँ लड़ीं थी और सभी लड़ाईया जीत कर भारत के लगभग दो-तिहाई हिस्से पर भगवा झंडा फहरा दिया था। यह वह समय था जब बाजीराव पूरे भारत में सबसे महान और अपराजित योद्धा के रूप में प्रतिष्ठित थे। वह सभी हिंदू राजाओं और हिंदू लोगों के हीरो और आशा की किरण थे। लोग मान रहे थे की जिस गति से बाजीराव मुगलों के हाथों से भारत जीत रहे थे, अगले दस या पंद्रह वर्षों में वह पूरे भारत में मराठा साम्राज्य की स्थापना कर देंगे और सदियों बाद दिल्ली में एक हिंदू राजा फिर से शासन कर रहा होगा। लेकिन बाजीराव के अपने मन में बचपन से ही महाराणा प्रताप के प्रति एक पूज्यभाव और आदर्शभाव था। वह चाहते थे कि जब वह दिल्ली जीते तब दिल्ली के हिन्दू राजा के तोर पर छत्रपति शिवाजी के वंशज साहू नहीं, पर महाराणा प्रताप के वंशज कोई राणा बैठे। इस तरह वह मुगलों के खिलाफ आजादी के लिए लड़ना सिखाने वाले महाराणा प्रताप को आजाद हिंदू जनता की ओर से श्रद्धांजलि देना चाहते थे। इस कारण वह मेवाड़ के राणा के साथ व्यक्तिगत और पारिवारिक सम्बंध स्थापित करने के इरादे से अपनी सेना और सामन्तो की जगह अपनी दो पत्नियों को साथ लेकर आये थे।

राणा जगतसिंह ने शहर से बाहर आकर पेशवा को नमन किया और जवाब में बाजीराव ने उन्हें ब्राह्मण के रूप में आशीर्वाद दिया। पेशवा और उनके पूरे बेड़े को विशाल चमन बाग़ में उतारा गया। चमन बाग़ और उदयपुर के महल को रोशनी और फूलों से सजाया गया था और मेवाड़ प्रांत के जागीरदारों को पेशवा से मुलाकात के लिए बुलाया गया था। अगले दिन पेशवा को उदयपुर महल के दरबार में आमंत्रित किया गया, जहाँ सामने दो राज सिंहासन रखे हुए थे। जब पेशवा ने कारण पूछा, तो राणा ने कहा, ‘आप से ऊपर बैठ सके ऐसा कोई राजा है नहीं और चूंकि यह मेरे पूर्वजों द्वारा स्थापित सिंहासन है, इसलिए मैं यहाँ किसी से नीचे नहीं बैठ सकता। इसलिए, मैं आपको अपने बरोबर सिंहासन पर बैठने के लिए आमंत्रित करता हूँ।

पेशवा आगे बढे और उनमे से एक सिंहासन के नीचे बैठ गए। राणा समेत वहाँ मौजूद सैकड़ों लोग चौंक गए। राणा ने कहा, ‘यह क्या श्रीमान…, आप…पर पेशवा ने कहा, ‘जिस सिंहासन पर महाराणा प्रताप बैठ चुके हो, उसकी बरोबरी में मैं कैसे बैठ सकता हूँ राणा…? वह आपका स्थान है, आप बैठिये। मैं सही जगह पर बैठा हूँ।

यह असामान्य बात राजस्थान में जंगल की आग की तरह फैल गई। बात जयपुर के राजा सवाई जयसिंघ तक पहुँची और पेशवा भी उदयपुर से सीधे जयपुर जाने वाले थे। पेशवा जयपुर पहुँचे तब सवाई जयसिंघ ने भी उसी भव्यता से पेशवा का स्वागत किया। जयसिंघ चाहते थे कि पेशवा जयपुर के दरबार में जयसिंघ को भी राणा के जैसा ही सम्मान दें। पेशवा ने दरबार में प्रवेशते ही देखा की, वहाँ केवल एक ही सिंहासन था। वह जयसिंघ के मन की बात समझ गये। पेशवा ने जयसिंघ से कहा, ‘राजा, एक ही सिंहासन क्यों है…? आप कहाँ बैठोगे…?’ यह सुनकर जयसिंघ चौंक गये। जयसिंघ ने कहा, ‘तो क्या आप मुझे राणा की तरह सम्मान नहीं देंगे…?’

पेशवा ने कहा, ‘जयसिंघ, मेवाड़ के राणाओं ने कभी मुगलो की अधीनता नहीं स्वीकारी। उन्होंने अपना धन-वैभव खो दिया, लेकिन अपनी स्वतंत्रता को कभी नहीं छोड़ा। ऐसा ही हम मराठाओने किया है। इसलिए वह हमारे बराबर है। जबकि आपके पूर्वजों और ख़ुद आपने भी समय-समय पर अपने राज्य और वैभव को बचाने के लिए मुगलों की अधीनता स्वीकारी है। इसलिए आप हमसे कमतर हैं। फिर भी, आज मैं आपको अपने समकक्ष बैठने की अनुमति देता हूँ। दूसरा सिंहासन रखवाइए और मेरे साथ बैठिये।

पूरा दरबार स्तब्ध था। जयसिंघ ने विनम्रता से वेसा ही किया। यह घटना पेशवा की स्पष्ट विचारधारा, आत्मविश्वास, शूरवीरता, चातुर्य और दूरदर्शी कूटनीति का परिचय देती है। इस एक बैठक से उन्होंने राणा को समय आने पर दिल्ली के सिंहासन पर बिठाने की पूरी तैयारी कर ली थी। उन्होंने मेवाड़ के राणा को अपने समकक्ष बताकर और जयसिंघ को अपना स्थान दिखाकर राजस्थान के अन्य राजपूत राजाओं के बीच राणा की स्वीकृति स्थापित करने का काम किया था, जिससे आगे चलके वह सारे राजा राणा की ईर्ष्या में उनके विरूद्ध कार्य न करे और उन्हें याद रहे की राणा पर मराठा साम्राज्य का हाथ हैं।

दुर्भाग्य से, चार साल बाद पेशवा का स्वास्थ्य ख़राब हो गया और युद्व अभियान के दौरान ही नर्मदा के तट पर उनकी मृत्यु हो गई और सारी योजना अधूरी ही रह गयी। इक्कीस साल बाद, मराठा दिल्ली पर अपना शासन स्थापित करने में सफल रहे, लेकिन हालात ऐसे थे कि उन्हें मुगल वंश के ही एक वंशज को कठपुतली राजा के रूप में दिल्ली के सिंहासन पर बिठाना पड़ा और उसी समय पानीपत में मराठों की हार ने उनकी ताकत को कमजोर कर दिया और अंग्रेजों के रूप में एक नई विदेशी शक्ति का उदय हुआ।