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July 29 / 2018 / Re-launched On Facebook on same date 2020 / Subject : The Indian Religion

राम-सीता का आपसी त्याग

मानवइतिहास का सबसे महान फैसला

‘सत्य क्या है?’ ‘धर्म क्या है?’ – इन सवालों के जवाब में मैं एक बात हमेशा दोहराता हूँ, ‘अच्छा होना धर्म नही है, सही होना धर्म है। अच्छा होना लक्ष्य नही है, सही होना लक्ष्य है।’ मुश्किल चुनाव कभी सही और गलत के बीच नही होते। वे हमेशा अच्छे और सही के बीच मे होते है। जिन्होंने सत्य को जान लिया है वह हमेशा सही रहने की कोशिश करते है। जिन्होंने सत्य और धर्म को सिर्फ धर्मगुरुओ के प्रवचनों से जाना है वह हमेशा अच्छे बने रहने की कोशिश करते है। क्या भीम को दुर्योधन की जंगा तोड़नी चाहिए थी, जब कमर के नीचे वार करना नियमों के खिलाफ था? अच्छा बनने की कोशिश करनेवाले युधिस्ठिर और बलराम कहेंगे ‘नही, ये अच्छा नही होगा, इसलिए इसे नही करना चाहिए।’ पर कृष्ण कहेंगे, ‘जब दुर्योधन जांगो के सिवा पूरा शरीर लोहे का कर चुका है तब उसे हराने का सिर्फ यही मार्ग है कि जहां वोह हार सकता है वहां वार किया जाए। अगर वह जीत गया तो महाभारत के इतने बड़े नरसंहार के बाद भी हस्तिनापुर की गद्दी पर उसके जैसा अधर्मी इंसान ही बैठेगा और समाज को अधर्म के मार्ग पर धकेल देगा। उसकी जंगा तोड़ना शायद अच्छा ना भी हो, पर सही वही है। और जो सही है वही सत्य की रक्षा करता है।’ पूरे महाभारत में कृष्ण ने कहीं भी अच्छा बनने की कोशिश नही की, उन्होंने सिर्फ सही बनने की कोशिश की। और यही राम के सीता त्याग का भी कारण है।
 
जब सीता का नाम लेकर राज्य की कुछ स्त्रियों ने ये कहना शुरू कर दिया कि ‘हमारी रानी दस महीने किसी और के महल के बाहर रहके आई, फिर भी राजा ने उसे स्वीकारकर रानी बना दिया। इसलिए हम भी अगर कही एक-दो रात ठहर जाए तो किसीको हमे सवाल पूछने का अधिकार नही। हमारे पतिओं को भी हमे स्वीकारना होगा।’ – तब सीता पर लांछन लगना शुरू हो गया। जैसे जैसे दिन बितते गए ये बात और फैलती गई और राज्य के पुरुष भी अब रानी सीता से द्वेष करने लगे, क्योंकि उसकी वजह से उनकी पत्नियाँ स्वच्छंदी बन रही थी। जब राम को ये पता चला तो राजा राम के लिए तो ये सिर्फ चिंता की बात थी, पर सीता के प्रेमी राम के लिए ये दिल चिर देनेवाला विखवाद था। जिस सिताने दस महीने तक रावण की कैद में रहकर भी रावण को स्पर्श नही करने दिया, जिसने अपने प्रेम की दिव्यता से रावण को रोके रखा उस सीता की पवित्रता पर ना सिर्फ सवाल उठाया जा रहा था, बल्कि उसका नाम लेकर व्याभिचार करने की छूट ली जा रही थी। अब यहां से हम मान ले कि चलो राम ने सीता का त्याग न किया और उन्हें रानी बनाकर रखा, तो क्या होता? तो समाज मे ये बदी फैलती जाती और उसके बचाव में सीता का उदाहरण पेश किया जाता। पूरा समाज व्याभिचार के अधर्म में घिर जाता और स्त्रियों के लिए आपसी संघर्ष में नष्ट होता। और सीता इस पूरे विकृत चित्र की एम्बेसेडर बनाई जाती। उस दिन सच न होते हुए भी सीता अपवित्र और चरित्रहीन साबित होती, तभी तो पूरे समाज को उसने अपने नाम पर ऐसा करने दिया। आज हम रामायण में एक ऐसी सीता के बारे में पढ़ते जिसने रावण की कैद में अपनी पवित्रता घवाई और फिर रानी बनकर पूरे समाज को ऐसा बनने पर प्रोत्साहित किया। अगर सीता का त्याग न किया जाता तो आज वह हमारे लिए एक आदर्श की जगह एक कलंक होती, निर्दोष होने के बावजूद।
 
राम और सीता दोनों विष्णु स्थिति के इंसान थे। वे इस दूरंदेशी चित्र को जान चुके थे। वह दोनों जान चुके थे कि अब सीता की पवित्रता और प्रतिष्ठा को बचाने का एक ही रास्ता है- जो राम और सीता आत्मा से एक है, वह अब शरीर से अलग हो जाए। पूरी पृथ्वी पर उनका एकदूसरे का शरीर ही एकमात्र पदार्थ था जो कितनी भी मुसीबतों के बाद भी एकदूसरे को शांति देता था। अब उन्हें वह भौतिक पदार्थ भी छोड़ देना था और आध्यात्मिक रूप से हर पल एकदूसरे के आत्मा से जुड़े रहना था। आखिर यह मुश्किल फैसला किया गया। ये फैसला न किसी राजा और रानी का फैसला था, ना किसी सामाजिक पति-पत्नी का। ये फैसला दो प्रेमियों का फैसला था जो पति-पत्नी भी बन पाए थे और राजा-रानी भी। अब वापस उन्हें सिर्फ प्रेमी बन जाना था और बाकी के दोनों रिश्तो के लाभ त्यागने थे। और उन्होंने ये लाभ त्याग दिए। ये फैसला बेडरूम में दो प्रेमियों के बीच लिया गया, पर जिन वासनाग्रस्त लोगों को सीधा रखने के लिए इसे लिया गया था उनको उदाहरण देने के लिए इसे लागू राजा राम ने करवाया। ‘सीता को जंगल मे किसी सन्यासी के आश्रम के नजदीक हमेशा के लिए छोड़ दिया जाए। अब वे अयोध्या की महारानी नहीं रह सकती।’ एक इंसानने अपने जीवन की एकमात्र कीमती चीज़ को इस तरह एक राजा के अभिनय के साथ छोड़ दिया। और किस लिए, समाज को अधर्म के मार्ग पर जाने से रोकने केलिए। समाज को अपनी वासनाए सीता के नाम का उपयोग करके खुली छोड़ने से रोकने केलिए। अपने प्रेम को युगों युगों की बदनामी और कलंक से बचाने केलिए एक प्रेमीने पवित्र पत्नी को त्याग देने का कलंक युगों युगों के लिए अपने सर पर ले लिया।
 
सिताने ऋषि के आश्रम में सुविधाओं के अभाव में राम के बिना जीवन काटा, तो रामने महल में सीता के बिना पल पल काटती हुई उन सुविधाओं और राजा की जिम्मेदारियों के बीच जीवन काटा। दोनों में से किसी ने दूसरी शादी तो क्या दूसरे व्यक्ति के बारे में सोचा तक नही। सीता आश्रम में और राम महल में नीचे बिस्तर लगाकर सोते रहे, पल पल एकदूसरे को याद करते हुए। और जब आखरी परीक्षा के रूप में सीता धरती में समा गई तब उनकी पवित्रता की रक्षा हमेशा के लिए हो गई। अयोध्या का लांछन बदनाम हुआ और सीता देवी बन गई। राम और सीता का एकदूसरे को त्यागने का पर्सनल निर्णय सफल साबित हुआ। पर राम के माथे पर पत्नी को छोड़ने का कलंक कुछ मूर्ख, अर्धज्ञानी और षड्यंत्रकारी लोगो की एवं प्रेम को न समज पानेवाली स्त्री सशक्तिकरण का झण्डा पकडी हुई स्त्रियों की जमात में आज भी लगा हुआ है। राम का बचाव करनेवालों में भी ज्यादातर अंध भकत है जो राम के खिलाफ कुछ सुनना नहीं चाहते, तो कुछ लोग वह रूढिचुस्त पुरुषप्रधान मानसिकता वाले लोग है जो आज भी स्त्री की पवित्रता की कसौटी में विश्वास करते है। ये आर्टिकल उन सभी लोगों के लिए हिंदी में लिखा गया है, ताकि वोह जहां कहीं भी हो इस आर्टिकल की भाषा उनकी समझ मे आ सके।
 
राम और सीता ने जो फैसला किया वह ऐसे दो प्रेमी ही कर सकते थे जिनके आत्मा युगों से जुड़े हुए है। अगर कोई आम सांसारिक पति-पत्नी होते, तो उस परिस्थिति में या तो पति अपनी पत्नी के शरीर को भोगने की लालसा से उसे अपने पास रख लेता और समाज को उसकी पत्नी के नाम पर अधर्म करने देता, जिससे आखिर में उसकी पत्नी पर लगा आरोप सिद्ध हो जाता। या तो लोगों की निंदा से विचलित होकर पति उस पत्नी को छोड़ देता और कुछ वक्त बाद किसी और स्त्री से विवाह कर लेता। राम की आलोचना करनेवाले तथाकथित बुद्धिजीवी इस बात का ध्यान रखे कि रामने इन दोनों में से एक भी नही किया। रामने अच्छा दिखने की कोशिश नही की, जो हर आम संसारी करता है। रामने सही बनने की कोशिश की। उन्होंने वह किया जो सही था। और मानवइतिहास के उस महान निर्णय से रामने ना सिर्फ समाज को अधर्म के मार्ग पर जाने से बचा लिया, अपनी प्रियतमा सीता की प्रतिष्ठा को भी हमेशा हमेशा के लिए सुरक्षित कर लिया। जब कि इस काम मे उनके अपने दामन पर दाग लग गया। शायद सीता को किसी जन्म में राम का ये ऋण चुकाना पड़े और राम की प्रतिष्ठा और अपने प्रेम की रक्षा के लिए वोह काम करना पड़े जिसमे अच्छा दिखने की बजाए वह करना जरूरी हो जो सही है।
July 17 / 2020 / On Facebook / Subject: Spirituality & Self Realizations

हर जीवन वैसा ही अंत चाहता है जैसा वह जिया गया है...

दिसंबर 2012 में, जब मैं अपने तपस्वी जीवन का परीक्षण करने के लिए बेलूर मठ में था, तो वहाँ के एक स्वामी, आत्मप्रियानंदजी ने अपनी सलाह मुजे इस सारांश के साथ कही, “आत्मज्ञान के बाद, संसार क्या और संन्यास क्या? यदि मन स्थितप्रज्ञ रह सकता है, तो संसार तुम्हारा क्या बिगाड़ लेगा? और यदि मन स्थिर नहीं रह सकता है, तो संन्यास तुम्हे क्या दे सकेगा?’ इस कथन ने मुझे वापस आने का साहस दिया। मैंने जनवरी 2013 में बेलूर से वापस आने के बाद अपने फोन में यह एक तस्वीर संग्रहीत की थी जो यहाँ मैंने दी है। इस तस्वीर को देखकर मैं समय-समय पर खुद को यह दिलासा देता रहता था कि एक दिन जब सभी सांसारिक कार्य पूरे हो जाएंगे, तो मैं सबकुछ छोड़कर ऐसी जगह जाकर अपने जीवन का समय ध्यान में बिताऊंगा और शरीर को स्वेच्छा से वहीं छोड़ दूंगा। लेकिन अब धीरे-धीरे स्वामी आत्मप्रियानंदजी ने जो कहा वह आत्मबोध में आ रहा है।

यही की अगर दुनिया में संसारी जीवन व्यतित करते वर्षों को स्थितप्रज्ञता के साथ नहीं बिताया गया, तो अंत में एक सुंदर और शांतिपूर्ण जगह पर जाने पर भी कोई शांति नहीं आएगी। अगर आज इस चित्र के सामने देखते वक्त जीवन इतना शांत और ध्यानपूर्ण लगता है, तो ही अंतिम दिनों में ऐसा होगा। यदि राम और कृष्ण की तरह स्थितप्रज्ञ मन से सांसारिक कार्य नहीं किया गया, जहां हर सफलता-विफलता को एक खेल के रूप में माना गया हो और आप दुनिया के बीच भीड़ में भी ध्यान लगाने में सक्षम हो, तो ऐसी शांत जगह में भी मन अतीत की बेचैन छाया में ही भटकता रहता है। इसीलिए, एक आत्मज्ञानी व्यक्ति के लिए संसार संन्यास से बड़ा विद्यालय है। दुनिया में लगातार होने वाले परीक्षण और अकेलापन एक साधु को विष्णु बनाते हैं। और केवल ऐसे विष्णु ही अंत में ऋषि की तरह दुनिया को छोड़कर एकांत में प्रबुद्ध मन से शरीर छोड़ सकते हैं।

इसलिए आप जैसा जीवन जीते है वैसी ही मृत्यु को प्राप्त होते हैं। वह जो भौतिकवादी बनके जीता है अंततः एक भौतिकवादी की बेचैनी और ज़टपटाहट के साथ मरता है। वह जो कर्मठ बनकर जीता है वह कर्मठ व्यक्ति के रूप में काम करते हुए ही मरता है। जो गुलाम बनकर जीता है वह गुलाम की मौत मरता है। जो बनावटी बनकर जीता है वह आखरी सांस तक बनावट करते हुए मरता है। ज्ञानी आदमी ज्ञान के साथ मरता है, भक्त भक्ति के साथ मरता है। स्थिर मनवाले आत्मज्ञानी आत्मा में ध्यान लगाकर शरीर को छोड़ देते है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि स्थान क्या है। महत्व हमारी आंतरिक स्थिति का है। हर जीवन वैसा ही अंत चाहता है जैसा उसे जीया गया है। आप अंत में कुछ नहीं बदल सकते। आप सिर्फ बाहरी वातावरण को बदल सकते हैं, पर किसी व्यक्ति का आंतरिक वातावरण वैसा ही रहता है जैसा कि वह जीवन भर उसके अंदर रहा है। तो आपकी अंतिम यात्रा में कितने लोग आए, आपकी मृत्यु के बाद बैठने और बारहवें दिन कितने लोग आए ये बातें आपके जीवन का मूल्य निर्धारित नहीं करती। जो लोग आपके सामने जीवनभर जूठा हँसे होते हैं, वह आपके मरने के बाद जूठा रोने आते है। ताकि जब वह मर जाए तो उनके लिए दूसरे रोने आए। यह समाज की भीड़ में रहने का एक बीमा है, जहां लोग सभाओं में भाग लेकर अपने प्रीमियम का भुगतान करते हैं। तो कुछ व्यापारी और नेता ‘मैं आया हूँ’ ये दिखाकर व्यापार और वोट सुरक्षित करने आते हैं। इसलिए अगर कोरोना की वजह से ये सर्कस बंद हो रहा है, तो इसे बंद रखने में ही भलाई है।

तो, आखिर में सार यही है कि आप कैसे मरते हैं यह बिल्कुल भी मायने नहीं रखता। आप कैसे जीते हैं यह महत्वपूर्ण है; सत्य का योद्धा बनकर या असत्य का गुलाम बनकर? यही आपके जीवन और मृत्यु दोनों का अर्थ निर्धारित करता है।

January 31 / 2022 / On Facebook / Subject: Spirituality & Self Realizations

आत्मज्ञानी मनुष्य की दुनिया में उपयोगिता

प्रश्न: आत्म-साक्षात्कार के बाद इस बनावटी दुनिया में रहना कैसे संभव है? जब एक आदमी को पता चलता है कि यह सब एक धोखा है, तो क्या उसके लिए फिर से उन लोगों के बीच अज्ञानता में रहना कोई समस्या नहीं है?
– डॉ। वेणु शाह

जवाब : हकीकत इसके उलट है। यदि आप सच्चे और स्वाभाविक हैं, लेकिन आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त नहीं हुए हैं, तो इस झूठी दुनिया में रहना बहुत मुश्किल है। समय-समय पर आपको धोखा दिया जाता है और बहुत चोट पहुंचाई जाती है। लेकिन अगर आप दुनिया की पूरी सच्चाई और अपने पीछे के सफर को जान लें तो वह बनावटी दुनिया आपके लिए बनावटी नहीं रहती। अब, आप जानते हैं कि वे लोग क्या है और वे क्या करेंगे? वह समय आएगा जब वे लोग आपको धोखा देंगे, लेकिन आप इससे इतने आहत नहीं होंगे, क्योंकि आप जानते होते हैं कि वे ऐसा ही करने वाले हैं। जब तक वे लोग पूरी तरह से पवित्र और केवल सत्य के लिए कर्म करने प्रति प्रतिबद्ध नहीं हो जाते, तब तक आप उनके सभी भटकाव के लिए तैयार रहेंगे (जिसे ‘स्खलन’ कहा जाता है)। जब वे लोग आपको धोखा देकर भी आपको चोट नहीं पहुंचा पाते, तो उससे वे खुद चोटील होते है। तब वह ठगा हुआ महसूस करते है। उन्हें अपने मन में अपनी आत्मा गिरी हुई महसूस होने लगती है। आप उनके लिए एक आइने, संसार के बीच रहे एक दर्पण के रूप में कार्य करेंगे, जिसके सामने देखते ही उन्हें अपनी असलियत मालूम होती है। आत्म-जागरूक व्यक्ति की दुनिया में यही एकमात्र उपयोगिता है। इस पूरे मामले में एक आत्म-साक्षात्कार प्राप्त व्यक्ति के रूप में आपके लिए परेशानी या दुःख तब होता है, जब आप उन गिरे हुए और झूठे लोगों से नेक काम करने की उम्मीद कर बैठते हैं। बस इसीसे बचना है। हमेशा जागरूकता बनाए रखनी है, ताकि उन्हें ठीक वैसा देख सकें जैसा वे उस वक्त है।

सांसारिक कर्मों के लेन-देन एटीएम के लेनदेन के समान हैं। आपके बैंक एकाउंट में बहुत पैसे है, पर आप एटीएम से उतने ही पैसे उठाते है जितने की उस वक्त जरुरत है। ठीक उसी तरह आत्म-जागरूक व्यक्ति सत्य को जानकर संसार के बीच में रहता है और जब, जितना और जैसा व्यवहार चाहिए उतना ही व्यवहार करता है। वह इस परम सत्य को नहीं भूलता कि ये सब अज्ञानी मनुष्य भी एक ही ब्रह्म के भिन्न टुकड़े हैं, जो कामुक स्वार्थ और अहंकार के कारण पतित हो गए हैं। वह अंदर से किसी से नफरत नहीं करता, पर अपने कर्मों को सत्य की ओर अडिग रखता है। श्रीकृष्ण ने शिशुपाल का सिर काट दिया, फिर शिशुपाल की आत्मा के रूप में उस जय की आत्मा बाहर निकली, जो वैकुंठ में विष्णु का द्वारपाल था। जय को देखते ही कृष्ण के चेहरे पर भाव प्रेममय हो गए। जय ने उन्हें प्रेम और भक्ति से प्रणाम किया। कृष्ण ने एक पिता अपने बच्चे से कह रहा हो वैसे प्रेमभाव से कहा, ‘शाप समाप्त हो गया है। वैकुंठ लौट जाओ, और द्वार पर पहरा दो। मैं कार्य  पूरा होने पर आ जाऊँगा।’ जय ने प्रेममय आंसुओं से सिर झुकाया और प्रणाम करते हुए वैकुंठ की ओर चल दिया। यह वही जय था, जो कुछ पल पहले कृष्ण को दुश्मन मानकर गालियाँ दे रहा था। और जय को एक पिता की तरह प्रेम देते यह वही कृष्ण थे, जिन्होंने कुछ पल पहेले उसकी शिशुपाल रूपी पहचान का सिर काट दिया था। बस, यही संसार है। एक अर्ध सत्य जिसका सम्पूर्ण सत्य एक आत्मज्ञानी इंसान जानता है। इसीलिए संसार में एक आत्म-जागरूक इंसान और एक अज्ञानी इंसान के बीच का यही व्यवहार होता है, जो कृष्ण और शिशुपाल के बीच में था।

May 09 / 2022 / On Fecebook / Subject: Indian Religion

देशभक्ति नहीं, भारत-भक्ति

 जैसे-जैसे समय बीतता है आप खुद को और भी ज्यादा समझते हैं। एक प्रसंग पर, मेरा परिचय यह एक प्रशंसा के साथ दिया गया कि, “हम जानते हैं, कौशिकभाई एक बहुत ही देशभक्त व्यक्ति हैं।” लेकिन यह सुनकर मैं खुश होने के बजाय बेचैन हो गया। लगा जैसे मैंने कोई जूठ सुना है, या अर्धसत्य सुना है। अचानक मेरा मन कारण की खोज करने लगा और बहुत कठिन आत्म-परीक्षण करने लगा जिसके लिए वह अभ्यस्त है। जब तक माइक मेरे हाथ में आया, तब तक मन उस बेचैनी का कारण समझ चुका था। मैंने कहा, ‘जहां तक देशभक्ति का सवाल है, यह कहना गलत है कि मैं देशभक्त हूं। मैं देशभक्त नहीं हूं। वह जमात तो हर देश में पाई जाती है। मैं भारत का भक्त हूं।’

अगर मैं किसी दूसरे देश में पैदा हुआ होता, तो भी कभी न कभी भारत को चाहने की स्थिति में आ गया होता। यह वह सभ्यता है जो मानवता को उसके अस्तित्व का कारण बताती है, और उसे वह मार्ग महसूस कराती है। अगर आप इस धरती पर एक इंसान के रूप में पैदा हुए हैं, और एक इंसान के अस्तित्व के कारण एवं उसके जीवन की सार्थकता पर कभी विचार किया है, तो उस विचार का अनुसरण अंततः आप को भारत के प्रेमी बनने की स्थिति में ही ले आएगा। पृथ्वी पर के किसी भी देश में जन्मा मनुष्य, जो इस विचार का अनुसरण करता है, वह अंततः भारत का भक्त बन जाता है। और इस विचार का अनुसरण न करने वाले सभी मनुष्य देशभक्त बन जाते हैं।  देशभक्ति स्वार्थ और अहंकार की उपज है। एक देश ‘मेरा’ है तो वह महान है, उसके लिए मैं किसी को मारने और मरने के लिए भी तैयार रहूंगा। इस स्थिति में एक भारतीय, एक पाकिस्तानी, एक रूसी, एक अमेरिकी, एक चीनी, एक जर्मन, एक यूक्रेनी या एक कोरियाई – सभी मानव समान हो जाते हैं। पिछले डेढ़ सौ वर्षों का विश्व का इतिहास इन सभी देशभक्तों के बीच हुए युद्धों का इतिहास है। मैं देशभक्त नहीं हूं, मैं भारत का भक्त हूं। मैं भारत के आध्यात्म और मानवता की सनातन विरासत के लिए लड़ रहा हूं। मुझे इस बात का कोई डर नहीं है कि मैं फिर कहां जन्म लूंगा? क्योंकि मैं जानता हूं कि अगले जन्म में भी मैं जब भी सत्य की खोज में निकलूंगा, भारत की भक्ति करने की स्थिति में ही आ जाऊँगा।